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________________ १४ णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन इसी बात को समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में समागत १५वें कलश में इसप्रकार कहा है - ( अनुष्टुप् ) एष ज्ञानघनो नित्यमात्मा सिद्धिमभीप्सुभिः । साध्यसाधकभावेन द्विधैक: समुपास्यताम्॥ (हरिगीत) है कामना यदि सिद्धि की ना चित्त को भरमाइये। यह ज्ञान का घन पिण्ड चिन्मय आतमा अपनाइये। बस साध्य-साधक भाव से इस एक को ही ध्याइये। अर आप भी पर्याय में परमातमा बन जाइये। स्वरूप की प्राप्ति के इच्छुक पुरुषों के लिए साध्य-साधक भाव के भेद से - दो प्रकार से, इस ज्ञान के घनपिण्ड एक भगवान आत्मा की ही नित्य उपासना करने योग्य है। यहाँ आचार्य महाराज उपदेश दे रहे हैं, आदेश दे रहे हैं कि हे आत्मार्थी पुरुषो ! आत्मा का कल्याण चाहनेवाले सत्पुरुषो !! तुम निरन्तर ज्ञान के घनपिण्ड आनन्द के रसकन्द इस भगवान आत्मा की ही उपासना करो, आराधना करो; चाहे साध्यभाव से करो, चाहे साधकभाव से करो, पर एक निज भगवान आत्मा की ही उपासना करो। उपासना करने योग्य तो एकमात्र यह ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का रसकन्द एक भगवान आत्मा ही है, अन्य कोई नहीं। यहाँ आत्मा की उपासना करने का तात्पर्य निज आत्मा की पूजाभक्ति करने से नहीं है, स्तुति-वन्दना करने से भी नहीं है, नमस्कारादि करने से भी नहीं है; अपितु उसे सही रूप में जानने से है, पहिचानने से है, उसका अनुभव करने से है, उसी में समा जाने से है; उसी का नित्य ध्यान करने से है, ध्यान रखने से है; उसको ही सर्वस्व मानने से है; उसी में पूर्णतः समर्पित हो जाने से है। यही निज भगवान आत्मा की उपासना
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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