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________________ १२ णमोकार महामंत्र : एक अनुशीलन किया है और जिन सिद्ध व साधुपरमेष्ठी से कोई प्रत्यक्ष उपकार सम्भव नहीं होता, उनकी शरण चाही गई है। इससे भी यही प्रतीत होता है कि इसमें मोक्ष और मोक्षमार्ग के प्रति अति बहुमान व्यक्त करना ही मूल उद्देश्य है, शरण में जाने का अर्थ इससे अधिक कुछ नहीं । मुक्ति और मुक्तिमार्ग में अरहन्त, सिद्ध और साधु पद तो आते हैं, पर आचार्य और उपाध्याय पद आना अनिवार्य नहीं है । आचार्य पद तो प्रशासन का पद है और उपाध्याय पद अध्यापन का पद है; दोनों में ही माथे पर भार रहता है। जबतक माथे पर भार रहेगा, तबतक क्षपक श्रेणी माँड़ना संभव नहीं है, क्षपकश्रेणी निर्धार व्यक्तियों को ही होती है। उक्त सम्पूर्ण विवेचन से सहज ही यह निष्कर्ष निकलता है कि णमोकार महामंत्र में जो शरण की बात कही गई है, वह भी कुछ मांग नहीं है; अपितु बहुमान की बात ही है; तथापि पर की शरण की बात कही तो गई है न, पर आचार्य कुंदकुंद तो पर की शरण में जाने की बात ही नहीं करते । वे तो साफ-साफ कहते हैं - अरहंत सिद्धाचार्य पाठक, साधु हैं परमेष्ठी पण । सब आतमा की अवस्थाएँ, आतमा ही है शरण ॥ अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्वसाधु- ये सब हैं क्या ? आखिर एक आत्मा की ही अवस्थाएँ हैं न? एक निज भगवान आत्मा के आश्रय से ही उत्पन्न हुई अवस्थाएँ हैं न ? तो फिर हम इनकी शरण में क्यों जावें, हम तो उस भगवान आत्मा की ही शरण में जाते हैं, जिसकी ये अवस्थाएँ हैं, जिसके आश्रय से ये अवस्थाएँ उत्पन्न हुई हैं। सर्वाधिक महान, सर्वाधिक उपयोगी, ध्यान का ध्येय, श्रद्धान का श्रद्धेय एवं परमशुद्धनिश्चयनयरूप ज्ञान का ज्ञेय तो निज भगवान आत्मा ही है, उसकी शरण में जाने से ही मुक्ति के मार्ग का आरम्भ होता है, मुक्तिमार्ग में गमन होता है और मुक्तिमहल में पहुँचना सम्भव होता है । -
SR No.009460
Book TitleNamokar Mahamantra Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla, Yashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages116
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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