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________________ १५० मोक्षमार्गप्रकाशक का सार शास्त्र-गुरुवाले गुरु तो पंचपरमेष्ठी में आचार्य, उपाध्याय, साधु ही हैं। हमसे लोग अध्यात्म सुनते हैं, सीखते हैं, सो गुरुदेव कहते हैं। प्रश्न हू तो आपको गुरुदेव विद्यागुरु के अर्थ में कहा जाता है, देवशास्त्र-गुरु के अर्थ में नहीं ? उत्तर ह्न हाँ, हाँ; यही बात है। भाई ! हम तो कई बार कहते हैं कि वस्त्रादि रखे और अपने को देव-शास्त्र-गुरुवाला गुरु माने, मनवावे; वह तो अज्ञानी है। इससे अधिक हम क्या कहें ?" यह बात आज से ३३ वर्ष पहले उस समय की है, जब जुलाई १९७६ ई. में सोनगढ से प्रकाशित और आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी के प्रवचनों का प्रसारक आत्मधर्म (आध्यात्मिक मासिक) का संपादन मुझे सौंपा गया था; तब सबसे पहले मेरे संपादन में प्रकाशित होनेवाले पहले ही अंक में संपादकीय के रूप में, उनसे लिया गया एक साक्षात्कार (इन्टरव्यू) प्रकाशित किया था, जिसमें उनके मुख के माध्यम से उन सभी शंकाओं का समाधान प्रस्तुत किया गया था; जो उनके विरुद्ध बुद्धिपूर्वक फैलाई जा रही थीं। उक्त अंश उसी साक्षात्कार का है। जिन्हें विशेष जिज्ञासा है, वे लोग चैतन्यचमत्कार नामक पुस्तक में उसे पूरा पढ़ सकते हैं, वह पुस्तक हमारे यहाँ अभी भी उपलब्ध है। प्रश्न - आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी भी तो भाई-बहिनों को ब्रह्मचर्यव्रत देते थे? जिन्हें वे ब्रह्मचर्यव्रत देते थे; क्या वे सभी सम्यग्दृष्टिसम्यग्ज्ञानी होते थे, अणुव्रती होते थे ? यदि नहीं तो फिर...... । उत्तर - जब वे किसी को ब्रह्मचर्यव्रत देते थे तो पहले वर्षों तक तत्त्वाभ्यास कराते थे, निवृत्तिमय जीवन जीने की प्रेरणा देते थे। न केवल प्रेरणा देते थे, अपितु लोग उनके सान्निध्य में रहकर वर्षों तत्त्वाभ्यास करते थे; जब वे उनके अध्ययन और आचरण से पूरी तरह संतुष्ट हो जाते थे, १. चैतन्यचमत्कार, पृष्ठ ७-८ दसवाँ प्रवचन १५१ तब भी ब्रह्मचर्यव्रत देते समय यह साफ-साफ कहते थे कि यह ब्रह्मचर्य प्रतिमावाला ब्रह्मचर्य नहीं है। यह तो तत्त्वाभ्यास के लिए पर्याप्त समय मिल सके; इसलिए निवृत्ति का मार्ग है। यह तो मात्र शादी न करके पूरी तरह स्वाध्याय में जीवन समर्पित करके सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति के प्रयास के लिए समर्पित होने का मार्ग है; क्योंकि शादी के बाद उलझाव ही उलझाव रहते हैं। इसलिए वे कहते थे कि यह काया का ब्रह्मचर्य है, मन-वचन के पूर्ण ब्रह्मचर्य के लिए तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और कम से कम ७वीं प्रतिमा के योग्य देशचारित्र होना आवश्यक है। ___ यही कारण है कि वे किसी वेष को धारण करने की बात नहीं करते थे, उनसे ब्रह्मचर्य लेनेवाले सभी वही अपनी पुरानी पोशाक धोतीकुर्ता ही पहनते थे। प्रश्न ह्न पर वे स्वयं तो.......... उत्तर ह्र जब उन्होंने दिगम्बर धर्म स्वीकार किया; उसके पूर्व वे स्थानकवासी श्वेताम्बर साधु थे। अत: जिस वेष में रहते थे, उसमें से स्थानकवासी श्वेताम्बर साधुत्व की निशानी मुहपट्टी तो उन्होंने छोड़ दी, शेष वैसे ही कपड़े पहनते रहे। उन्हें लगा कि अब क्या धोती-कुर्ता पहनूँ; पर वे स्पष्ट कहते रहे कि मैं कोई साधु नहीं हूँ, मेरे कोई प्रतिमा भी नहीं है। यदि वे अपने वेष को ब्रह्मचारियों का वेष मानते होते तो जिन्होंने उनसे ब्रह्मचर्य लिया था, कम से कम वे लोग तो उनके वेष में रहते। ___ जैनदर्शन में साधुता के तीन ही वेष (लिंग) हैं। एक नग्न दिगम्बर मुनिराज का, दूसरा उत्कृष्ट श्रावक का और तीसरा आर्यिकाओं का। इसके अतिरिक्त कोई वेष दिगम्बर जिनधर्म में मान्य नहीं है। उक्त संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी का मोक्षमार्गप्रकाशक में समागत निम्नांकित कथन दृष्टव्य है ह्र "तथा कितने ही प्रकार का वेष धारण करने से गुरुपना मानते हैं; परन्तु वेष धारण करने से कौनसा धर्म हुआ कि जिससे उन्हें धर्मात्मा-गुरु
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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