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________________ १४६ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार छूटने पर सम्यग्दर्शन सहित जिस भूमिका के योग्य आचरण धारण करे, पद भी तदनुसार ही होता है। कुगुरु के उक्त स्वरूप के संदर्भ में उल्लेखनीय बात यह है कि इसमें किसी व्यक्ति या धर्म या दर्शन का उल्लेख न करके वृत्ति और प्रवृत्तियों के माध्यम से कुगुरुओं का स्वरूप स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। मुख्य बल इस बात पर है कि गुरुता न होने पर भी लोग स्वयं को गुरु के रूप में स्थापित करना चाहते हैं, धर्मगुरुओं को सहजभाव से प्राप्त होनेवाले सम्मान को प्राप्त करना चाहते हैं; एतदर्थ अनेक प्रकार के आडम्बर करते हैं, वेषादि धारण करते हैं। ये बातें ऐसी हैं कि जो किसी शास्त्र में देखकर नहीं लिखीं जा सकती; जगत में उस समय जिसप्रकार की प्रवृत्तियाँ चल रही थीं; उनका बारीकी से निरीक्षण करके ही पण्डितजी ने इस विषय को प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि कुछ लोग कुल की अपेक्षा अपना गुरुपना स्थापित करते हैं। वे कहते हैं कि हमारा कुल ऊँचा है, इसलिए हम सबके गुरु हैं। इस पर पण्डितजी यह कहना चाहते हैं कि यदि कोई उच्च कुलवाला ही आचरण करे तो उसे गुरु कैसे माना जा सकता है ? किसी कुल में पैदा होने मात्र से क्या होता है, उच्चता और नीचता का निर्णय तो आचरण से होना चाहिए, न कि कुल से। गुरुपना तो एकदम व्यक्तिगत है, किसी कुल या परिवार को गुरु कैसे माना जा सकता है ? कुछ लोग कहते हैं कि हमारे पूर्वजों में बड़े-बड़े धर्मात्मा हो गये हैं, सन्त हो गये हैं; विद्वान हो गये हैं, त्यागी तपस्वी हो गये हैं, दानवीर हो गये हैं; इसलिए हम भी महान हैं; उनसे पण्डितजी कहते हैं कि पूर्वजों की महानता से तुम महान कैसे हो सकते हो ? यदि तुम्हें महान बनना है तो तुम्हें स्वयं महान कार्य करने होंगे। पूर्वजों की महानता उनके साथ गई, वह तुम्हारे किसी काम आनेवाली नहीं है। दसवाँ प्रवचन १४७ जिसप्रकार डॉक्टर के बेटे को डॉक्टर, वकील के बेटे को वकील, विद्वान के बेटे को विद्वान नहीं माना जा सकता; उसीप्रकार तुम्हें भी पूर्वजों के कारण महान नहीं माना जा सकता। दिगम्बर जैनदर्शन में तो यह बात किसी भी स्थिति में संभव नहीं है; क्योंकि दिगम्बर जैनों में देव - शास्त्र - गुरुवाले गुरु तो नग्न दिगम्बर पूर्ण ब्रह्मचारी ही होते हैं; अतः उनके कोई संतान होना ही संभव नहीं है। यद्यपि आज कुल से गुरु मानने की बात समाप्तप्राय: ही है; तथापि पण्डित टोडरमलजी के युग में विशेषकर जैनेतरों में इसप्रकार की प्रवृत्तियाँ बहुत थीं। यही कारण है कि पण्डितजी ने महाभारतादि के उदाहरण देकर इस बात को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। यद्यपि दिगम्बर जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन - ज्ञानपूर्वक सकल संयमधारी नग्न दिगम्बर मुनिराजों को ही गुरु संज्ञा प्राप्त है; तथापि आज की स्थिति तो यह है कि कोई भी व्यक्ति; घर छोड़ा, चादर ओढ़ी और अपने को गुरु मानने लगता है, मनवाने लगता है। वैसे तो जैनदर्शन में ब्रह्मचर्य व्रत सातवीं प्रतिमा में होता है। सातवीं प्रतिमा का नाम भी ब्रह्मचर्य प्रतिमा है। उसके पहले ब्रह्मचर्याणुव्रत तो हो सकता है, पूर्ण ब्रह्मचर्य नहीं । अरे, भाई ! ब्रह्मचर्याणुव्रत भी मिथ्यात्व, अनन्तानुबंधी और अप्रत्याख्यानावरण कषाय के अभावपूर्वक होनेवाले सम्यग्दर्शन - ज्ञान व अणुव्रतरूप देशचारित्र पूर्वक होता है। न सम्यग्दर्शन का ठिकाना है, न सम्यग्ज्ञान का पता है, अणुव्रती भी नहीं है और ब्रह्मचारी हो गये और मानने लगे कि हम जगत से हट के हैं, कुछ विशेष हैं; इसलिए जगत के गुरु हैं। अरे, भाई ! पत्नी या पति का नहीं होना ही तो ब्रह्मचर्य नहीं है। ऐसा तो पाप के उदय में भी हो सकता है; अधिकांशत: होता भी ऐसा ही है। तुलसीदासजी ने भी लिखा है ह्र नारि मुई अर संपति नाशी । मूढ़ मुड़ाय भये सन्यासी ।।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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