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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार साधु तो साधु हैं ही, आचार्य और उपाध्याय भी तो साधु ही हैं। अतः उन्होंने पहले साधुओं का सामान्य स्वरूप बताया; उसके बाद आचार्य और उपाध्यायों की चर्चा करते समय उनकी विशिष्ट विशेषताओं को अलग से बता दिया। आचार्य और उपाध्यायों में साधु संबंधी सभी तो होना ही चाहिये। इसके अतिरिक्त संघ का अनुशासन-प्रशासन गुण करनेवाले आचार्य और पठन-पाठन करानेवाले उपाध्याय होते हैं। पंच परमेष्ठियों का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त ग्रन्थ की प्रामाणिकता पर सयुक्ति प्रकाश डाला गया है। वीतरागी सर्वज्ञ भगवान महावीर की वाणी; जो परम्परागतरूप से आज भी उपलब्ध है; यह मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र उसी के अनुसार लिखा गया है; अतः इसकी प्रामाणिकता में संदेह के लिए कोई स्थान नहीं है । १२ इस पर यदि कोई कहे कि भगवान महावीर तो वीतरागी सर्वज्ञ थे; उनके बाद आजतक चली आई परम्परा में आनेवाले लेखक और प्रवक्ता ह्न सभी तो वीतरागी - सर्वज्ञ नहीं थे। इतनी लम्बी परम्परा में किसी ने बीच में कुछ मिलावट कर दी हो, कुछ घालमेल कर दिया हो तो.... । उक्त आशंका का निवारण करते हुये पण्डितजी कहते हैं कि ज्ञानीजन उसको चलने नहीं देते। पण्डितजी के उक्त कथन में ज्ञानी धर्मात्मा विद्वानों में कितना बड़ा विश्वास व्यक्त किया गया है। न केवल विश्वास व्यक्त किया, अपितु उनके कन्धों पर जिनवाणी को शुद्ध एवं पूर्ण प्रामाणिक रखने का भार भी डाल दिया है। तात्पर्य यह है कि यदि जैनदर्शन के नाम पर जैन सिद्धान्तों के विरुद्ध कोई बात चल रही हो तो ज्ञानी विद्वानों को दृढ़तापूर्वक उसका निषेध कर देना चाहिये । इसके बाद में जानने-सुनने योग्य शास्त्र, ज्ञानी वक्ता और तत्त्वजिज्ञासु श्रोताओं के स्वरूप पर प्रकाश डाला गया है। बांचने-सुनने योग्य शास्त्रों की चर्चा करते समय वे किन्हीं ग्रन्थ पहला प्रवचन १३ विशेषों का नाम नहीं गिनाते; अपितु कहते हैं कि जो शास्त्र मोक्षमार्ग का प्रकाश करें, जिनमें मोह राग-द्वेषभावों का निषेध करके वीतराग -भाव का पोषण किया गया हो; वे शास्त्र ही बाँचने-सुनने योग्य हैं। जिनमें शृंगार - भोग- कुतूहलादि का पोषण करके रागभाव का, हिंसायुद्धादि का पोषण करके द्वेषभाव का और अतत्त्व श्रद्धान का पोषण करके मोहभाव ( मिथ्यात्व ) का पोषण किया गया हो; वे शास्त्र नहीं, शस्त्र (हथियार) हैं, उनका बाँचना-सुनना योग्य नहीं है। इसीप्रकार वक्ता का स्वरूप स्पष्ट करते हुये जिन बातों पर वे सर्वाधिक वजन देते हैं; उनमें से कुछ इसप्रकार हैं ह्र जिनवाणी का प्रवक्ता जैनतत्त्वज्ञान के प्रति अटूट आस्था रखनेवाला दृढ़ श्रद्धानी, बुद्धिवान, व्यवहारनिश्चयादि नयों का स्वरूप जाननेवाला, जिनाज्ञा के भंग होने के भय से भयभीत, मंदकषायी, स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर देनेवाला और अध्यात्मरस का रसिया होना चाहिये । वक्ता का स्वरूप समझाने के लिये उन्होंने आत्मानुशासन का एक छन्द प्रस्तुत किया है, जो इसप्रकार है ह्र प्राज्ञः प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदयः प्रव्यक्तलोकस्थितिः, प्रास्ताशः प्रतिभापरः प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तरः । प्राय: प्रश्नसहः प्रभुः परमनोहारी परानिन्दया, ब्रूयाद्धर्मकथां गणी गुणनिधिः प्रस्पष्टमिष्टाक्षरः ।।५॥ जो बुद्धिमान हो, जिसने समस्त शास्त्रों का रहस्य प्राप्त किया हो, लोक मर्यादा जिसके प्रगट हुई हो, आशा जिसके अस्त हो गई हो, जो कांतिमान हो, उपशमी हो, प्रश्न करने से पहले ही जिसने उत्तर देखा हो, बाहुल्यता से प्रश्नों को सहनेवाला हो, प्रभु हो, पर की तथा पर के द्वारा अपनी निन्दा रहितपने से पर के मन को हरनेवाला हो, गुणनिधान हो, स्पष्ट और मिष्ट जिसके वचन हों ह्र ऐसा सभा का नायक धर्मकथा कहे । वक्ता का विशेष लक्षण ऐसा है कि यदि उसके व्याकरण - न्यायादिक
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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