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________________ १३२ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार सच्चा देव मानकर उनकी सच्चे देव के समान ही अष्ट द्रव्य से पूजाअर्चना तो नहीं करने लगते। इसीप्रकार व्यन्तरों की भी पूजा-अर्चना करना ठीक नहीं है। वे तो हमारे और आपके समान ही रागी-द्वेषी देवगति के देव हैं। इसप्रकार हम देखते हैं कि मोक्षमार्गप्रकाशक के छठवें अधिकार में व्यन्तरदेवों के संदर्भ में विस्तार से चर्चा की गई है। जिन्हें उक्त संदर्भ में विशेष जानने का विकल्प हो; उन्हें मोक्षमार्गप्रकाशक के उक्त प्रकरण का गहराई से अध्ययन करना चाहिए। इसप्रकार अबतक व्यंतरदेवों के बारे में विचार किया, अब क्षेत्रपालपद्मावती आदि के संदर्भ में बात करते हैं; क्योंकि दिगम्बर जैन समाज में इनके संदर्भ में भी बहुत भ्रान्ति है। उक्त संदर्भ में पण्डितजी लिखते हैं कि यदि कोई प्रश्न करे कि क्षेत्रपाल, पद्मावती और यक्ष-यक्षिणी तो जैनधर्म के अनुयायी हैं; उनकी पूजनादि करने में तो कोई दोष नहीं है ? उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए पण्डितजी कहते हैं कि जिनमत में तो संयम धारण करने से पूज्यपना होता है और देवगति के देवों में संयम नहीं होता। तथा जो लोग इनको सम्यक्त्वी मानकर पूजते हैं; उनसे कहते हैं कि भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषियों में सम्यक्त्व की मुख्यता नहीं है। यदि सम्यक्त्व से ही पूजना है तो लौकान्तिक देवों अथवा सर्वार्थसिद्धि के देवों को क्यों नहीं पूजते ? इस पर यदि कोई कहे कि इनके भक्ति विशेष है तो कहते हैं कि भक्ति की विशेषता तो सौधर्म इन्द्र में इनसे भी अधिक है और वे नियम से सम्यग्दृष्टि भी हैं; उन्हें छोड़कर इन्हें क्यों पूजते हो? इस पर भी यदि कोई यह कहे कि जिसप्रकार राजा के प्रतिहारादिक (द्वारपालादि) हैं तथा प्रतिहारादिक के मिलाने पर राजा से मिलना होता नौवाँ प्रवचन १३३ है; उसीप्रकार ये क्षेत्रपालादि तीर्थंकर के प्रतिहारादिक हैं और इनके सहयोग से उनसे मिलना सहज हो जायेगा । अतः इनके पूजने में लाभ ही है। उक्त प्रश्न का उत्तर देते हुए पण्डितजी कहते हैं कि तीर्थंकरों के समवशरण में क्षेत्रपालादिक का कोई स्थान नहीं है, अधिकार नहीं है। तीर्थंकरों के दर्शन करने के लिए इनके सहयोग की रंचमात्र भी आवश्यकता नहीं है। तीर्थंकर भगवान का समवशरण तो खुला दरबार है। जिनको श्रद्धा है, उनके प्रति भक्ति का भाव है, दिव्यध्वनि सुनने का उत्कृष्टतम भाव है; वे सभी सहजभाव से दौड़े-दौड़े चले जाते हैं; बिना किसी रोक-टोक के दर्शन करते हैं, भक्ति करते हैं और दिव्यध्वनि का श्रवण कर आनन्दित होते हैं। ___इसलिए क्षेत्रपालादि की पूजन देवपूजन तो है ही नहीं; अपितु गृहीत मिथ्यात्व है, मनुष्य भव की नई कमाई है; जो इसके अनंत संसार का कारण बनेगी। पद्मावती के संदर्भ में जो प्रसंग बना था; वह इसप्रकार है ह्र अग्नि में जलते हुए नाग-नागिनी की रक्षा तीर्थंकर पार्श्वकुमार ने गृहस्थावस्था में की थी; उन्हें संबोधित भी किया था। फलस्वरूप वे धरणेन्द्र और पद्मावती के रूप में भवनवासी देव-देवी हो गये। ____ जब मुनि अवस्था में तीर्थंकर पार्श्वनाथ मुनिराज पर पूर्व भव के बैरी कमठ के जीव ने उपसर्ग किया; उन पर पत्थर बरसाये और भी अनेकप्रकार के उपद्रव किये; तब उन धरणेन्द्र-पद्मावती नामक देव-देवी को उक्त उपसर्ग को दूर करने का तीव्रतम विकल्प आया और उन्होंने जो कुछ संभव था; वह करने का भरपूर प्रयास किया। उपसर्ग और रक्षा के प्रयास के बीच में आत्मनिमग्न पार्श्वनाथ मुनिराज को केवलज्ञान प्राप्त हो गया; वे अरहंत बन गये और उपसर्ग समाप्त हो गया; क्योंकि अरहंत अवस्था में उपसर्ग नहीं होता। बात, बस इतनी ही है; पर उसने आज ऐसा रूप धारण कर लिया है
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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