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________________ १२८ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार स्वीकार करना चाहिए; क्योंकि उनके अस्तित्व से इन्कार करना भी तो सत्य का अपलाप करना है।" वस्तुत: बात यह है कि लोग मानने का अर्थ पूजना या पूजने के योग्य मानना ही समझते हैं। मानने का एक अर्थ पूजना भी हो सकता है; क्योंकि लोक में इसप्रकार के प्रयोग देखे जाते हैं; किन्तु मानने का असली अर्थ तो उनके अस्तित्व को स्वीकार करना है। हम उन्हें पूजने योग्य नहीं मानते, उनकी पूजा करने को गृहीत मिथ्यात्व मानते हैं; पर लोक में उनके अस्तित्व से भी इन्कार नहीं करते। इसीप्रकार का प्रश्न ज्योतिषशास्त्र के संबंध में किया जाता है कि आप ज्योतिष को मानते हैं? यदि हम कह दें कि मानते हैं तो फिर यही कहा जाने लगता है कि सब बकवास है। अरे भाई ! कोई ज्योतिषी गलत हो सकता है, ठग हो सकता है; परन्तु ज्योतिष शास्त्र तो गलत नहीं है, ज्योतिष विद्या तो ठग विद्या नहीं है। यदि कुछ लोगों ने ज्योतिष के नाम पर ठगी का धंधा आरंभ कर दिया है, तो इसकारण ज्योतिष शास्त्र को तो ठग विद्या नहीं माना जा सकता। जब हम यह कहते हैं कि ज्योतिष भी है तो लोग समझते हैं कि हम उन ठगों का समर्थन कर रहे हैं, जो ज्योतिष के नाम पर लोगों को ठगते हैं। अरे भाई ! हम ज्योतिषियों को नहीं, ज्योतिष विद्या को निमित्तज्ञान का अंग मानते हैं। इसीप्रकार हम व्यंतरों का अस्तित्व तो स्वीकार करते हैं, पर उन्हें पूज्य नहीं मानते, उनकी पूजा नहीं करते। इसप्रकार हम देखते हैं कि पण्डित टोडरमलजी ने प्रत्येक वस्तुस्थिति को बड़े ही संतुलन के साथ प्रस्तुत किया है। __इस पर कुछ लोग कहते हैं कि वे दूसरों का भला-बुरा करते भी देखे जाते हैं; डराते-धमकाते तो हैं ही; आगे-पीछे की बातें भी बताते हैं। इसके उत्तर में पण्डितजी कहते हैं कि वे भला-बुरा करने की बातें चाहे जितनी भी करें, पर वे किसी का भला-बुरा कर नहीं सकते; किन्तु आठवाँ प्रवचन १२९ जो लोग उन्हें पूजते हैं, वे ह्र बुरा न कर दें तू इस डर से और भला कर देंगे ह्र इस लोभ से ही पूजते हैं या फिर उनसे हमें भविष्य की बातों का पता चल जावेगा ह्र इस आशा से पूजते हैं; परन्तु बात यह है कि मनुष्यों के समान वे भी रागी-द्वेषी और कौतूहलप्रिय होने से कभी सत्य बोलते हैं तो कभी झूठ भी बोलते हैं। अत: उनके कथनों के आधार पर कोई निर्णय नहीं लिया जा सकता; क्योंकि किसी निर्णय पर पहुँचने के लिए सच्चाई की विश्वसनीयता होना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए उनका ज्ञान भी हमारे किसी काम का नहीं है। ___ व्यन्तर देवों को अवधिज्ञान होता है। उसके माध्यम से वे द्रव्यक्षेत्र-काल-भाव की मर्यादा में बाह्य पौद्गलिक पदार्थों को प्रत्यक्ष जानते हैं। उनका यह अवधिज्ञान एक तो इसलिए निरर्थक है कि उसकी गति मात्र पौद्गलिक पदार्थों में है, आत्मा में नहीं और आत्मा का कल्याण तो आत्मा को जानने से होता है; पौद्गलिक पदार्थों को जानने से नहीं। दूसरे उनके अवधिज्ञान की काल संबंधी मर्यादा भूतकाल की अपेक्षा भविष्यकाल की बहुत कम होती है। हमें भूतकाल को जानने में कोई रस नहीं है, हम तो भविष्य के बारे में जानना चाहते हैं; क्योंकि भूतकाल तो बीत चुका है और उसे तो बहुत कुछ हम भी जानते हैं। ___व्यन्तर देव भूतकालीन बातें बता कर हमारा विश्वास प्राप्त कर लेते हैं; पर जब हम भविष्य की बात करते हैं तो.... । भविष्य की जिस बात को वे जानते नहीं है, उसके बारे में भी वे मान कषाय के कारण यह नहीं कह सकते कि हमें इस बात का पता नहीं है; अतः झूठ-सच कुछ भी बोल देते हैं। यह तो वे जानते ही हैं कि मैंने २० वर्ष आगे की बात बताई है; उसकी सच्चाई का पता तो बीस वर्ष बाद ही चलेगा। अत: कुछ भी चिन्ता करने की बात नहीं है। इसतरह हम उनके उस अवधिज्ञान से भी कोई लाभ नहीं उठा सकते। कुतूहलवश तो वे झूठ बोलते ही हैं, मानकषाय के वश होकर भी वे
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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