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________________ १२४ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि कोई व्यक्ति भगवान आदिनाथ से महावीर तक चौबीस तीर्थंकरों को भी अपने हित-अहित का कर्त्ता माने तो क्या वे भी कुदेव कहलायेंगे? नहीं, कदापि नहीं; क्योंकि वे तो सर्वज्ञ, वीतरागी और हितोपदेशी होने से सच्चे देव ही हैं; तथापि उसकी वह मान्यता गृहीत मिथ्यात्वरूप कुदेव संबंधी मिथ्या मान्यता अवश्य है; क्योंकि उससे वह अपनी 'एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-धर्ता है' ह्र इस अनादिकालीन मिथ्या मान्यता का पोषण कर रहा है।। अरे, भाई ! कोई व्यक्ति कुदेव नहीं होता; वह तो यदि सच्चा देव नहीं है, सर्वज्ञ और वीतरागी नहीं है तो अदेव है। इसप्रकार अरहंत और सिद्धों को छोड़कर समस्त संसारी जीव अदेव हैं। उनमें से किसी को भी हम अरहंत-सिद्ध जैसा सच्चा देव माने, सच्चा देव मानकर पूजें तो हमारी वह मान्यता देवसंबंधी कुदेव को माननेरूप गृहीत मिथ्यात्व है। इस पर कोई कह सकता है कि तो क्या हम देवगति के देवों को भी देव नहीं कह सकते, देव नहीं मान सकते ? नहीं; भाई ! ऐसी बात नहीं है। देवगति के देवों को देव कहने या मानने में कोई आपत्ति नहीं है; परन्तु धार्मिक आधार पर अरहंत-सिद्ध जैसी पूज्यता उनमें नहीं है। यहाँ इस प्रकरण में गृहीत मिथ्यात्व के संदर्भ में सच्चे देव और कुदेव की बात चल रही है। इससे देवगति के देवों का कोई लेना-देना नहीं है। वस्तुत: बात तो ऐसी है कि ये वीतरागी-सर्वज्ञ सच्चे देव देवगति में नहीं; मनुष्यगति में होते हैं, पंचमगति (सिद्ध-अवस्था) में होते हैं। अरहंत भगवान मनुष्यगति के जीव हैं और सिद्ध भगवान पंचमगति के जीव हैं। पण्डित टोडरमलजी के काल में दिगम्बर जैनियों में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि लोग देव के नाम पर भूत-प्रेतादि व्यन्तरदेवों की उपासना करने लगे थे। आज भी स्थिति कोई विशेष अच्छी हो ह्र ऐसा आठवाँ प्रवचन १२५ नहीं माना जा सकता; क्योंकि आज भी बहुत से लोग धर्म के नाम पर इसप्रकार की प्रवृत्तियों में लगे रहते हैं और इसप्रकार की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देनेवाले कुगुरुओं की भी कहीं कोई कमी नहीं है। उक्त सभी प्रवृत्तियाँ गृहीत मिथ्यात्व संबंधी प्रवृत्तियाँ हैं। इनके संदर्भ में पण्डित टोडरमलजी ने इस अधिकार में खुलकर चर्चा की है। वे लिखते हैं कि बहुत से जीव इस पर्याय संबंधी शत्रुनाशादिक, रोगादि मिटाने, धनादि व पुत्रादिक की प्राप्ति के लिए कुदेवादिक को पूजते हैं; भूत-प्रेतादि व्यंतरों को पूजते हैं; सूर्य-चन्द्रमादि ज्योतिषियों को पूजते हैं; पीर-पैगम्बर को पूजते हैं; गाय, घोड़ा, सर्पादि तिर्यंचों को पूजते हैं, अग्नि-जलादिक को पूजते हैं, हथियारों को पूजते हैं; अधिक क्या कहें ह्र रोड़ा आदि को भी पूजते हैं। इन सबको पूजने का निषेध करते हुए वे लिखते हैं कि यदि अपने पाप का उदय हो तो वे सुख नहीं दे सकते और पुण्य का उदय हो तो दुःख नहीं दे सकते तथा उनको पूजने से पुण्यबंध भी नहीं होता, रागादिक की वृद्धि होने से पापबंध ही होता है; इसलिए उनका मानना-पूजना कार्यकारी नहीं है, बुरा करनेवाला है। कुदेवों के प्रकरण का समापन करते हुए पण्डितजी लिखते हैं कि देखो तो मिथ्यात्व की महिमा ! लोक में तो अपने से नीचे को नमन करने में अपने को निंद्य मानते हैं और यहाँ मोहित होकर रोडों को तक पूजते फिरते हैं। इस पर कोई कहता है कि उनके पूजने से भले ही कोई लाभ न हो, पर हानि भी नहीं है। इसतरह की बातें दवाईयों के बारे में भी बहुत चलती हैं। लोग कहते हैं कि होम्योपैथिक दवाई से यदि फायदा नहीं होगा तो नुकसान भी नहीं होगा; पर ऐसा कैसे हो सकता है ? जो नुकसान नहीं करेगी, वह दवाई बीमारी को भी नुकसान कैसे पहुंचा सकती है ? जब बीमारी को भी नुकसान नहीं पहुँचायेगी तो फिर बीमारी का अभाव कैसे होगा ?
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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