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________________ सातवाँ प्रवचन ११३ ११२ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार लगभग सभी प्राचीनतम जैनेतर भारतीय साहित्य में, यहाँ तक कि वेदों में भी जैनधर्म के उल्लेख पाये जाते हैं; इससे सहज ही यह सिद्ध होता है कि जैनदर्शन वेदों से भी पहले का तो है ही। आपको यह जानकर भी सुखद आश्चर्य होगा कि अब तक प्राप्त प्राचीन मूर्तियों के अवशेषों में सबसे प्राचीन अवशेष जैनमूर्तियों के ही हैं। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि एक ओर तो पण्डित टोडरमलजी यह कहते हैं कि जिनमें विपरीत निरूपण द्वारा रागादि का पोषण किया गया हो, उन शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना गृहीत मिथ्याज्ञान है और दूसरी ओर उन्होंने स्वयं जैनेतर साहित्य का इतना अध्ययन किया । इस विरोधाभास का क्या कारण है? अरे, भाई ! आपने पण्डितजी द्वारा लिखी गई गृहीत मिथ्याज्ञान की परिभाषा को ध्यान से नहीं पढ़ा। उसमें अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि जिनमें विपरीत निरूपण द्वारा रागादि का पोषण किया गया हो; उन शास्त्रों को 'श्रद्धानपूर्वक' पढ़ना-पढ़ाना गृहीत मिथ्यात्व है। इसमें आपने 'श्रद्धानपूर्वक' शब्द पर ध्यान नहीं दिया। इसकारण ही यह प्रश्न उपस्थित हुआ है। जैनेतर शास्त्रों के पढ़ने का निषेध नहीं है। यदि उनके पढ़ने का सर्वथा निषेध करेंगे तो न केवल पण्डित टोडरमलजी, अपितु न्यायशास्त्र के उन सभी आचार्यों पर भी प्रश्नचिन्ह लग जावेगा; जिन्होंने स्वमत मण्डन और परमत खण्डन संबंधी ग्रन्थों की रचना की है; क्योंकि जैनेतर ग्रन्थों के अध्ययन के बिना तो यह कार्य संभव ही नहीं था। आचार्य अकलंकदेव तो दीक्षा से पहले बौद्धों के विद्यालयों में बौद्धदर्शन का गहरा अध्ययन करने के लिए गये थे। यदि ऐसा है तो आप यह प्रेरणा क्यों देते हैं कि यहाँ-वहाँ के साहित्य को पढ़ने में समय खराब मत करो; उन आध्यात्मिक शास्त्रों का स्वाध्याय करो कि जिनमें राग का पोषण नहीं है और उस शुद्धात्मा का स्वरूप समझाया गया है; जिसके दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन, जानने का नाम सम्यग्ज्ञान और जिनमें जम जाने, रम जाने का नाम सम्यक्चारित्र है। अरे, भाई! यह बात उनके लिए कही जाती है: जिनके पास समय बहुत कम है। जो लोग या तो वृद्धावस्था के नजदीक पहुँच गये हैं या फिर धंधे-पानी में उलझे हुए हैं; उन लोगों के पास जो भी थोड़ा-बहुत समय है या उनमें से जो लोग थोड़ा-बहत समय निकालते हैं। उन्हें उन्हीं शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिएकि जिनमें सीधी आत्महित की ही बात हो। जिसप्रकार यद्यपि छात्रों को पाठ्यक्रम के बाहर की पुस्तकों के पढ़ने का निषेध नहीं है; तथापि परीक्षा निकट हो और छात्र पढ़ाई में कमजोर हो तो उससे कहा जाता है कि यहाँ-वहाँ की पुस्तकें पढ़ने में समय बर्बाद मत करो, पाठ्यक्रम की किताबों को ही मन लगाकर पढ़ो; उसीप्रकार यद्यपि जैनेतर शास्त्रों के पढ़ने का निषेध नहीं है; तथापि यहाँ जिन लोगों को धार्मिक ज्ञान अल्प है, जिनके पास समय भी कम है, जिनका बुढ़ापा नजदीक है; उन लोगों को यह कहा जा रहा है कि प्रयोजनभूत तत्त्वों के प्रतिपादक शास्त्रों का ही स्वाध्याय करो, यहाँ-वहाँ मत भटको। जिन लोगों ने सम्पूर्ण जीवन ही जिनागम के स्वाध्याय के लिए समर्पित कर दिया है; अत: जिनके पास समय की कोई कमी नहीं है; उन लोगों को न्याय, व्याकरण के साथ-साथ जैनेतर दर्शनों का भी ज्ञान अर्जित करना चाहिए। इससे उनके ज्ञान में तो निर्मलता आती ही है; वे आचार्यों की बातों को किसी के दूसरे के सहयोग के बिना समझ सकते हैं। न्यायशास्त्र में निपुण होने से प्रयोजनभूत तत्त्वों को भी तर्क की कसौटी पर कसकर सम्यक निर्णय कर सकते हैं। स्वयं के हित के साथ-साथ परहित में भी निमित्त बन सकते हैं, जिनवाणी की सुरक्षा में भी सहयोग कर सकते हैं। ____ हम हमारे यहाँ अध्ययन करनेवाले छात्रों को व्याकरण, न्याय एवं अन्य दर्शन के ग्रन्थों का भी अध्ययन कराते हैं; पर मुख्यता जिनअध्यात्म की ही रखते हैं।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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