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________________ १०४ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार वर्षों से अभीतक लाखों लोगों को सन्मार्ग पर लगाया है, लाखों लोगों को गृहीत मिथ्यात्व से छुड़ाया है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी का जीवन भी समयसार और मोक्षमार्गप्रकाशक पढ़कर ही बदला था। हम भी उन लोगों में से हैं, जिन्होंने मोक्षमार्गप्रकाशक से बहुत कुछ सीखा है। उनके इस उपकार को, उनके बलिदान को भुलाया नहीं जा सकता। हमें भी आज यही काम करना है और उसी हिम्मत के साथ करना है, सावधानी से करना है, विनम्रता के साथ करना है, आलोचना- प्रत्यालोचना से दूर रहकर करना है। जो निधि हमें व आपको प्राप्त हुई है; उसका भरपूर लाभ लेना है और उसे जन-जन तक पहुँचाना है। गृहीत मिथ्यात्व का निरूपण करते हुए सबसे पहले इस पाँचवें अधिकार में जैनेतर मतों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है; जिसमें उन्होंने उन सभी मतों की समीक्षा की है; जो तत्कालीन समाज में प्रचलित थे । जैनदर्शन के न्याय ग्रंथों में जो कुछ उपलब्ध होता है, यदि उसे सरलसुबोध भाषा में एक साथ एक स्थान पर देखना हो तो मोक्षमार्गप्रकाशक का पाँचवाँ अधिकार पढ़ लीजिए । जो कुछ जैन न्याय ग्रंथों में उपलब्ध होता है, वह सबकुछ तो इसमें है ही; उसके अतिरिक्त उस समय प्रचलित मुस्लिम मत आदि की समीक्षा भी की गई है। एक जमाना यह था कि जब भारतीय दर्शनों में परस्पर वाद-विवाद हुआ करते थे। उस समय का समाज सहिष्णु समाज था और वह उसमें बढ़-चढ़ कर भाग लेता था। दोनों पक्षों की बात गंभीरता से सुनी जाती थी और गुण-दोषों के आधार पर निर्णय होते थे । ये वाद-विवाद राज दरबार में हुआ करते थे और न्यायप्रिय राजागण स्वयं उक्त सभा के अध्यक्ष रहा करते थे। आज से लगभग उन्नीस सौ वर्ष पहले इसप्रकार के वाद-विवादों के माध्यम से जैन न्याय के प्रतिष्ठापक १०५ सातवाँ प्रवचन आचार्य समन्तभद्र ने सारे देश में घूम-घूम कर जैनदर्शन की बहुत प्रभावना की थी। करहाटक नगर के राजा ने जब उनसे उनका परिचय पूछा तो उन्होंने अपना परिचय देते हुए कहा था कि ह्र ( शार्दूलविक्रीडित ) पूर्वं पाटिलपुत्र - मध्यनगरे भेरी मया ताडिता पश्चान्मालवसिन्धु टुक्क विषये काञ्चीपुरे वैदिशे । प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभटं विद्योत्कटं संकटं वादार्थी विचराम्यहं नरपते शार्दूलविक्रीडितम् ।। हे राजन् ! सबसे पहले मैंने पाटलिपुत्र (पटना) नगर में शास्त्रार्थ ( वाद-विवाद ) के लिए भेरी बजाई; उसके बाद मालव, सिन्धु, ढक्क, कांची, विदिशा आदि स्थानों पर जाकर भेरी बजाई और अब बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों से परिपूर्ण इस करहाटक नगर में आया हूँ। मैं वादार्थी हूँ और सिंह के समान सर्वत्र ही निर्भय होकर विचरण करता हूँ । आचार्य समन्तभद्र के उक्त कथन से न केवल उनकी विद्वता की महिमा हमारे ध्यान में आती है; अपितु उस समय के सहिष्णु समाज का स्वरूप भी हमारे ध्यान में आता है। उस काल में सभी दर्शनों में स्वमत मंडन और परमत खंडन संबंधी विपुल साहित्य की रचना हुई है। जैनदर्शन भी उससे अछूता नहीं रहा । जैनदर्शन में 'न्यायशास्त्र' नाम से प्रसिद्ध जितना भी साहित्य है; लगभग वह सभी इसीप्रकार का है। पण्डित टोडरमलजी ने न केवल उक्त साहित्य का गहराई से अध्ययन किया था, अपितु जैनेतर साहित्य का भी भरपूर आलोढ़न किया था । तत्कालीन विसंगतियों से भी वे भलीभाँति परिचित थे। इस बात के प्रमाण उनके इस मोक्षमार्गप्रकाशक के पाँचवें अधिकार में यत्र-तत्र देखे जा सकते हैं। जिस समय मोक्षमार्गप्रकाशक लिखा जा रहा था, उस समय
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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