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________________ ९६ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार अध्यात्म भरा है; पर मैं कहता हूँ कि यदि यह वैराग्य है, अध्यात्म है तो फिर अज्ञान क्या है, मिथ्यात्व क्या है ? ___मैं जानना चाहता हूँ कि मरने पर जो यहाँ पड़ा रह जायेगा, वह तू है या जो उड़ जायेगा, वह तू है। जिसके साथ औरत देहरी तक जावेगी, जिसे बेटा मसान तक ले जायेगा और जिसे सब लोग मिलकर जला देंगे; तू वह है या जो उड़ जावेगा, वह तू है ? अरे, भाई ! तू तो वह भगवान आत्मा है, जो मृत्यु होने पर अगले भव में चला जाता है; जो यहाँ पड़ी रहेगी, जिसे मसान ले जाया जायेगा और अन्त में जला दिया जायेगा, वह तो देह है। जिस भजन में तुझे शरीर बताया जा रहा हो, वह तो अगृहीत मिथ्यादर्शन का पोषक है; वह अच्छा कैसे हो सकता है? शरीर, स्त्री-पुत्रादि और धनादि का संयोग पुण्य-पाप के उदयानुसार प्राप्त होते हैं; पर यह समझता है कि धनादि को मैंने कमाया है, शरीर को संभाल कर मैंने रखा है, स्त्री-पुत्रादि की रक्षा मैं करता हूँ। अरे, भाई ! स्त्री-पुत्रादि का पुण्य-पाप उसके साथ होता है, उन्हें जो भी अनुकूलताप्रतिकूलता प्राप्त होती है; वह सब तो उनके पुण्य-पाप का फल है। उसमें तेरा क्या है ? भले ही यह कहता है कि यह सब मैंने किया है, किन्तु जब इसकी इच्छानुसार कार्य नहीं होता है तो कहने लगता है कि मैं क्या करूँ ? इसकी यह शक्ति और प्रवृत्ति अगृहीत मिथ्यादर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्ररूप मोह का परिणाम है। अधिकार के अन्त में पण्डितजी कहते हैं कि यदि तुम इन सांसारिक दुःखों से मुक्त होना चाहते हो तो इन अगृहीत मिथ्यादर्शनादि विभावभावों का अभाव करने का पुरुषार्थ करो। करने योग्य कार्य तो एकमात्र यही है। इसके करने से तेरा कल्याण अवश्य होगा। सातवाँ प्रवचन आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी कृत मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र की विषयवस्तु के संबंध में चर्चा चल रही है। चौथे अधिकार में अगृहीत मिथ्यादर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। अब इस पाँचवें अधिकार से गहीत मिथ्यादर्शन. गृहीत मिथ्याज्ञान और गृहीत मिथ्याचारित्र का निरूपण आरंभ करते हैं। इस बात का उल्लेख इसी अधिकार के आरंभ में पण्डितजी इसप्रकार करते हैं ह्न “यहाँ अनादि से जो मिथ्यात्वादि भाव पाये जाते हैं, उन्हें तो अगृहीत मिथ्यात्वादि जानना; क्योंकि वे नवीन ग्रहण नहीं किये हैं। तथा उनके पुष्ट करने के कारणों से विशेष मिथ्यात्वादिभाव होते हैं, उन्हें गृहीत मिथ्यात्वादि जानना । वहाँ अगृहीत मिथ्यात्वादि का वर्णन तो पहले किया है, वह जानना और अब अगृहीत मिथ्यात्वादि का निरूपण करते हैं सो जानना।" जिसप्रकार कोई जन्मजात रोगी सचेत होकर भी कुपथ्य का सेवन करे तो उस रोगी का ठीक होना और अधिक कठिन हो जाता है; उसीप्रकार अनादि से अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव सैनी पंचेन्द्रिय दशा में विशेष ज्ञानशक्ति पाकर विपरीत मान्यता का पोषण करे तो उसका सुलझना और अधिक कठिन हो जाता है। इसलिए जिसप्रकार वैद्य कुपथ्यों को विस्तार से बताकर उनके सेवन करने का निषेध करता है; उसीप्रकार यहाँ सद्गुरु अनादिकालीन मिथ्या श्रद्धानादि के पोषक बाह्य कारणों को विस्तार से बताकर उनका निषेध करते हैं। गृहीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का स्वरूप पण्डितजी अति संक्षेप में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ-९५
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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