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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार मुहल्ले के लोग इकट्ठे हो गये, पर किसी की समझ में कुछ नहीं आ रहा था; सबके चित्त में एक सवाल उठता था कि बनिया कैसे ठगाया जा सकता है ? ऐसा आजतक तो कभी हुआ नहीं, अब कैसे हो सकता है ? एक बोला ह्र भाई ! कलयुग है, कुछ भी हो सकता है; पर उसकी बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया । सब मिलकर बड़े गुरुजी के पास पहुँचे और पूरी बात विगतवार सुनाकर हाथ जोड़कर खड़े हो गये। बड़े गुरुजी भी असमंजस में पड़ गये। कुछ देर तो वे शान्त रहे, फिर एकदम उचक कर बोले ह्न आ गया समझ में, सबकुछ साफ-साफ ही तो है कि ठग बनिये ने एक तोला सौंफ कम तोल दी, ठग लिया न उसने और आप लोग समझ ही नहीं पाये। सब बहुत प्रसन्न हुए; क्योंकि उनकी समझ में सबकुछ आ गया था कि बनिये ने ही किसान को ठगा है। हमारी भी यही दशा है और हम अगृहीत मिथ्यात्व के जोर में यह सोच भी नहीं पाते कि हमारे अनुकूल-प्रतिकूल जो भी हुआ है, वह सब हमने ही किया है; क्योंकि कोई अन्य व्यक्ति के पुण्य-पाप को हम नहीं भोग सकते और हमारे पुण्य-पाप को अन्य कोई नहीं भोग सकता। ___ अगृहीत मिथ्यात्व के जोर में हमारी समझ में यह साधारण सी बात भी नहीं आती कि जो करे, सो भरे । हमारी बुद्धि तो निरन्तर दूसरों को उत्तरदायी ठहराने के तर्क खोजती रहती है। यह अगृहीत मिथ्यात्वरूप मोह की महिमा है। इससे अधिक और अब हम क्या कह सकते हैं ? इसप्रकार अगृहीत मिथ्यादर्शन, अगृहीत मिथ्याज्ञान और अगृहीत मिथ्याचारित्र का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त खेद व्यक्त करते हुए पण्डितजी मिथ्यात्वरूप दर्शनमोह की महिमा का बखान करते हुए लिखते हैं ह्र "ऐसे ये मिथ्यादर्शनादिक भाव जीव के अनादि से पाये जाते हैं, नवीन ग्रहण नहीं किये हैं। देखो इसकी महिमा कि जो पर्याय धारण करता है, वहाँ बिना ही सिखाये मोह के उदय से स्वयमेव ऐसा ही परिणमन होता है। तथा मनुष्यादिक को सत्यविचार होने के कारण मिलने पर भी छठवाँ प्रवचन सम्यक् परिणमन नहीं होता और श्रीगुरु के उपदेश का निमित्त बने, वे बारम्बार समझायें; परन्तु यह कुछ विचार नहीं करता। तथा स्वयं को भी प्रत्यक्ष भासित हो, वह तो नहीं मानता और अन्यथा ही मानता है। किसप्रकार ? सो कहते हैं ह्र मरण होने पर शरीर-आत्मा प्रत्यक्ष भिन्न होते हैं। एक शरीर को छोड़कर आत्मा अन्य शरीर धारण करता है; वहाँ व्यन्तरादिक अपने पूर्वभव का संबंध प्रगट करते देखे जाते हैं; परन्तु इसको शरीर से भिन्न-बुद्धि नहीं हो सकती। ___ स्त्री-पुत्रादिक अपने स्वार्थ के सगे प्रत्यक्ष देखे जाते हैं; उनका प्रयोजन सिद्ध न हो तभी विपरीत होते दिखायी देते हैं; यह उनमें ममत्व करता है और उनके अर्थ नरकादिक में गमन के कारणभूत नानाप्रकार के पाप उत्पन्न करता है। धनादिक सामग्री किसी की किसी के होती देखी जाती है, यह उन्हें अपनी मानता है। तथा शरीर की अवस्था और बाह्य सामग्री स्वयमेव उत्पन्न होती तथा विनष्ट होती दिखायी देती है, यह वृथा स्वयं कर्ता होता है। ___ वहाँ जो कार्य अपने मनोरथ के अनुसार होता है, उसे तो कहता है ह्र 'मैंने किया' और अन्यथा हो तो कहता है ह्न 'मैं क्या करूँ' 'ऐसा ही होना था अथवा ऐसा क्यों हुआ ?' ह्र ऐसा मानता है। परन्तु या तो सर्व का कर्ता ही होना था या अकर्ता रहना था, सो विचार नहीं है। तथा मरण अवश्य होगा ह ऐसा जानता है, परन्तु मरण का निश्चय करके कुछ कर्त्तव्य नहीं करता; इस पर्याय संबंधी ही यत्न करता है। तथा मरण का निश्चय करके कभी तो कहता है कि ह मैं मरूँगा और शरीर को जला देंगे। कभी कहता है ह मुझे जला देंगे। कभी कहता है ह्र यश रहा तो हम जीवित ही हैं। कभी कहता है ह्न पुत्रादिक रहेंगे तो मैं ही जीऊँगा। हू इसप्रकार पागल की भांति बकता है, कुछ सावधानी नहीं है। तथा अपने को परलोक में जाना है, यह प्रत्यक्ष जानता है; उसके
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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