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________________ ६ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार रहे हैं। इसमें भी अर्थसहित उन्हीं पदों का प्रकाशन होगा। इतना तो विशेष है कि ह्र जिसप्रकार प्राकृत संस्कृत शास्त्रों में प्राकृत संस्कृत पद लिखे जाते हैं, उसीप्रकार यहाँ अपभ्रंश सहित अथवा यथार्थता सहित देशभाषारूप पद लिखते हैं; परन्तु अर्थ में व्यभिचार कुछ नहीं है। इसप्रकार इस ग्रन्थपर्यंत उन सत्यार्थपदों की परम्परा वर्तती है।" पण्डितजी के उक्त कथन से आत्मार्थी भाई बहिनों को यह प्रेरणा मिलती है कि हमें किन-किन शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये और यह भी समझ में आता है कि उन्होंने इस ग्रंथ की रचना किस भावना से की है। इसप्रकार उन्होंने स्वयं इस मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र की प्रामाणिकता पर प्रकाश डाला है। यह मोक्षमार्गप्रकाशक शास्त्र पूर्ण नहीं हो पाया। यदि यह पूर्ण हो गया होता तो इसका स्वरूप कैसा होता ह्र इसकी कल्पना हम कर सकते हैं। मैंने पी-एच.डी. के लिए शोध करते समय इसकी एक रूपरेखा तैयार की थी। वह रूपरेखा मेरे शोधप्रबन्ध और मोक्षमार्गप्रकाशक की प्रस्तावना में दी गई है, जिसे विशेष जिज्ञासा हो, वे वहाँ से देख सकते हैं। उक्त रूपरेखा मात्र मेरी कल्पना नहीं है; उसका ठोस आधार मोक्षमार्गप्रकाशक में १२ स्थानों पर लिखे गये वे वाक्य हैं कि जिनमें यह लिखा गया है कि इसका विशेष विवेचन हम आगे करेंगे। एक स्थान पर लिखा है कि इसकी चर्चा हम कर्माधिकार में करेंगे। इसका स्पष्ट संकेत यह है कि वे इस ग्रन्थ में एक कर्मों का स्वरूप बतानेवाला अधिकार भी लिखना चाहते थे । यदि हम उक्त १२ बिन्दुओं पर गहराई से चिन्तन करें तो हम यह आसानी से समझ सकते हैं कि वे इस ग्रन्थ में क्या-क्या लिखना चाहते थे। अभी यह ग्रन्थ ३५० पृष्ठों का है। यदि पूर्ण हो गया होता तो ४ हजार पृष्ठों से कम का नहीं होता। तब हम बड़े ही गौरव से कह सकते थे कि यदि जैनदर्शन को समझना है तो अकेले मोक्षमार्गप्रकाशक को ही पढ़ लीजिये, पहला प्रवचन जैनदर्शन समझ में आ जायेगा; क्योंकि उसमें वह सबकुछ होता जो जैनधर्म जानने के लिये आवश्यक है। I जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र की एकता को मुक्तिमार्ग बताया गया है और यह ग्रन्थ भी मोक्ष के मार्ग पर प्रकाश डालनेवाला अर्थात् मोक्षमार्गप्रकाशक है; अतः इसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का स्वरूप विस्तार से आनेवाला था; जिसे उन्होंने नौवें अधिकार में आरंभ किया है; पर ग्रन्थ तो अधूरा है ही, वह अधिकार भी पूरा नहीं हो पाया। आरंभ के आठ अधिकार तो मात्र भूमिका ही हैं। सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र मुक्ति का मार्ग है और मिथ्यादर्शन, ज्ञान चारित्र संसार का मार्ग है। आठ अधिकारों में संसारमार्ग का निरूपण ही हो पाया है। संसार समुद्र से पार होने के लिये संसार के कारणरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को समझना भी अत्यन्त आवश्यक है। यही कारण है कि उन्होंने इनका विवेचन भी विस्तार से किया। इससे आप कल्पना कर सकते हैं कि जब संसार मार्ग ही ३५० पृष्ठों में है तो फिर मुक्ति का मार्ग कितने पृष्ठों का होता । अधिकतर लोग मिथ्यात्व का अर्थ अकेला मिथ्यादर्शन ही समझते हैं; जबकि मिथ्यात्व में मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र तीनों ही शामिल हैं। इसीप्रकार सम्यक्त्व का अर्थ भी अकेला सम्यग्दर्शन नहीं; अपितु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ह्न ये तीनों ही होते हैं। विशेष ध्यान रखने योग्य बात यह है कि शास्त्रों में भी कहीं-कहीं इन मिथ्यात्व और सम्यक्त्व शब्दों का प्रयोग क्रमशः अकेले मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन के अर्थ में भी होता रहा है; इसकारण प्रकरण के अनुसार इनका अर्थ समझना ही समझदारी है। आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजी ने मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को अगृहीत और गृहीत के भेदों में विभाजित किया है।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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