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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार ७२ के प्रति एकत्व - ममत्व बना रहता है। यह सब अगृहीत मिथ्यात्व के जोर का परिणाम है । जबतक यह आत्मा अंतर्मुखी पुरुषार्थ द्वारा देह में विद्यमान देह से भिन्न भगवान आत्मा को जान नहीं लेता, पहिचान नहीं लेता, अनुभव नहीं कर लेता, आत्मानुभूति से सम्पन्न नहीं हो जाता; तबतक देहादि में एकत्व - ममत्वरूप अगृहीत मिथ्यात्व विद्यमान रहता ही है। जिसका जिसमें एकत्व होता है, वह उसके प्रति विशेषरूप से सजग रहता है। इस बात को प्रमाणित करने के लिए एक प्रयोग किया गया। दस लोगों को एक ही मात्रा की नींद की गोली खिलाकर सुला दिया गया। जब वे गहरी नींद में चले गये तो सभी के कान में रमेशचन्द नाम को एक से मन्द स्वर में सुनाया गया। तब रमेशचन्द नाम का व्यक्ति तो जाग गया, पर शेष सभी सोते रहे। फिर उसी मन्द स्वर में सभी को सुरेशचन्द नाम को सुनाया गया तो सुरेशचन्द तो जाग गया, पर शेष सोते रहे; वह रमेशचन्द भी सोता रहा, जो रमेशचन्द शब्द सुनकर जाग गया था। ऐसा ही प्रत्येक के साथ किया गया, पर सभी अपना-अपना नाम सुनकर जागे, अन्य किसी का नाम सुनकर कोई नहीं जागा । इसका अर्थ यह हुआ कि जिसका जिस नाम के साथ एकत्व था, अपनापन था; वह उस नाम के प्रति नींद में भी सतर्क था, सावधान था और जिसके साथ एकत्व नहीं था, उसके प्रति सहज उदासीनता थी । तात्पर्य यह है कि जिसके साथ हमारा अपनापन होता है, एकत्व होता है, ममत्व होता है; उसके प्रति सावधानी जागृति सोते-जागते निरन्तर बनी रहती है। उसके बाद सभी को उतने ही मंद स्वर में 'आत्मा' शब्द सुनाया गया, पर कोई नहीं जागा। आवाज को थोड़ा तेज किया गया, फिर भी कोई नहीं जागा और अधिक तेज करने पर भी कोई नहीं जागा । इससे सिद्ध हो गया कि दिन-रात आत्मा की चर्चा करनेवाले उन लोगों में से किसी के भी हृदय में आत्मा के प्रति अपनापन नहीं है, एकत्व नहीं है, पाँचवाँ प्रवचन ७३ ममत्व नहीं है, जागृति नहीं है, सावधानी नहीं है। इससे सहज ही सिद्ध होता है कि वे सभी देहादि में एकत्वबुद्धिवाले अगृहीत मिथ्यादृष्टि जीव हैं; क्योंकि सम्यग्दृष्टि जीवों को तो आत्मा के प्रति सतत् सावधानी रहती है, जागृति रहती है। इस अज्ञानी जीव को जैसा एकत्व - ममत्व मनुष्यरूप असमानजातीय द्रव्यपर्याय में है; वैसा ही एकत्व-ममत्व जबतक स्वयं अपने आत्मा में नहीं आता, स्वयं में नहीं आता; तबतक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति संभव नहीं है। आत्मानुभूतिपूर्वक स्वयं में, स्वयं के आत्मा में एकत्व-ममत्व आये और श्रद्धा व ज्ञान में निरन्तर बना रहे, कभी-कभी उपयोग की एकाग्रतारूप ध्यान में भी आये तो समझ लेना कि हम सम्यग्दृष्टि हैं। यद्यपि अनुभूति सदा नहीं रहती; तथापि ज्ञानियों के ज्ञान-श्रद्धान में आत्मा सदा बना रहता है। आत्मा की प्राप्ति का एकमात्र यही उपाय है; सम्यग्दर्शन - ज्ञानचारित्ररूप मोक्षमार्ग की प्राप्ति की भी यही प्रक्रिया है। आत्मा की प्राप्ति और सम्यग्दर्शन - ज्ञान चारित्र की प्राप्ति एक ही बात है। जब द्रव्य की ओर से बात करते हो तो आत्मा की प्राप्ति कहते हैं और जब पर्याय की ओर से बात करते हैं तो उसी को सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र की प्राप्ति कहते हैं। यह बात सुनिश्चित ही है कि जबतक सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती; तबतक सभी जीव अगृहीत मिथ्यादृष्टि ही हैं और उनके नियम से असमानजातीयद्रव्यपर्यायरूप मनुष्यादि अवस्थाओं में एकत्वबुद्धि, ममत्वबुद्धि, कर्तृत्वबुद्धि, भोक्तृत्वबुद्धि या भ्रमबुद्धि रहती ही है। इसमें कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु निमित्त भी नहीं होते; क्योंकि किसी भी व्यक्ति ने हमें यह नहीं समझाया कि मैं देह में एकत्व - ममत्व करूँ और न हमने किसी के कहने से देहादि में एकत्व - ममत्व स्थापित किया है।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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