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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार मनुष्य गति में जन्म से पहिले नौ महिनों तक माँ के पेट में रहना पड़ता है; वहाँ स्थान की कमी के कारण अंगों के सिकुड़े रहने से असह्य वेदना सहनी पड़ती है और जब जन्म होता है, तब जो भयंकर पीड़ा होती है, उसका कहना तो असंभव सा ही है, उसका तो कोई ओर-छोर ही नहीं है। ४६ जन्म के बाद इसका बचपन अज्ञानदशा में ही बीत जाता है और जवानी में यह जवान पत्नी के राग में लीन रहता है। जरा विचार तो करो कि अधमरे के समान वृद्धावस्था में अपने आत्मा को प्राप्त करने का पुरुषार्थ कैसे किया जा सकता है? यदि कभी अकामनिर्जरा के कारण देवगति में भवनवासी, व्यंतर या ज्योतिषी देव हो जाता है तो वहाँ पंचेन्द्रिय विषयों के दावानल में जलता रहता है और जब मरण का समय आता है; तब विलाप करने लगता है। इसप्रकार यह जीव भवनत्रिक देवों में दुःख भोगता रहता है। यदि कभी वैमानिक देव हो गया, स्वर्गों में चला गया; तब भी वहाँ सम्यग्दर्शन के बिना दुःखी ही रहता है। और अन्त में मिथ्यात्व के कारण वहाँ से च्युत होकर एकेन्द्रियपर्याय में चला जाता है, निगोद में चला जाता है। इसप्रकार यह जीव इस संसार में पंचपरावर्तन करते हुये सर्वत्र ही अनन्त दुःख भोगता रहता है। देखो, वैमानिक देवों की चर्चा करते हुये उन्होंने ३१ सागर की आयु वाले नववीं ग्रैवेयक तक के देवों की ही चर्चा की; क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीव वहीं तक जाते हैं, वहीं तक होते हैं; उसके ऊपर अनुदिश और पाँच अनुत्तर हैं, जिनमें सर्वार्थसिद्धि भी शामिल हैं; इनमें रहनेवाले जीव तो नियम से सम्यग्दृष्टि ही होते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव तो सर्वत्र सुखी ही हैं; क्योंकि दुःख के कारण तो मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र ही हैं। सम्यग्दृष्टियों को चारित्रमोह के उदय में जो दुःख देखा जाता तीसरा प्रवचन ४७ है, वह नगण्य ही है और अल्पकाल में स्वयं समाप्त हो जानेवाला है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि धर्मात्माओं के भवचक्र का अन्त आ गया है। कल्पोपपन्न और कल्पातीत के भेद से वैमानिक देव भी दो प्रकार के होते हैं। जिनमें इन्द्र, सामानिक आदि दस भेद होते हैं, उन्हें कल्पोपपन्न कहते हैं और जिनमें इसप्रकार के भेद नहीं होते, सभी इन्द्र के समान हो; उन्हें अहमिन्द्र कहते हैं; वे कल्पातीत कहलाते हैं। पहले स्वर्ग से सोलहवें स्वर्ग तक के देव कल्पोपपन्न हैं और उसके ऊपर के अर्थात् नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर के सभी देव कल्पातीत कहलाते हैं। कल्पोपपन्न देवों में छोटे-बड़े का भेद होने से हीन भावना का भी दुःख पाया जाता है। ऐरावत हाथी भी आभियोग्य जाति का देवगति का जीव है, तिर्यंच नहीं; पर उसे हाथी बनकर इन्द्रों को अपनी पीठ पर बिठाना पड़ता है। ऐसी स्थिति में उसकी मानसिक पीड़ा की कल्पना की जा सकती है। हम भी पंचकल्याणकों में इन्द्रों की ही बोलियाँ लेते हैं, कोई व्यक्ति ऐरावत हाथी की बोली नहीं लेता; इसी कारण उनकी बोली नहीं लगाई जाती। इसप्रकार हम देखते हैं कि चारों गतियों में जीव एकमात्र मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र के कारण ही दुःखी हैं और उन दुःखों के बचने का एकमात्र उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की प्राप्ति ही है। इस तीसरे अधिकार में चारों गतियों के दुःखों का निरूपण करने के उपरान्त दुःख के सामान्य स्वरूप का निरूपण किया है, जिसमें चार प्रकार की इच्छाओं का मौलिक चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। तदुपरान्त मोक्षसुख की संक्षिप्त चर्चा है। उक्त विषयों की चर्चा अगले प्रवचनों में यथास्थान होगी ही।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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