SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार है। इस जगत में जन्म-मरण का दुःख ही सबसे बड़ा दुःख है; जिसे वे निगोदिया जीव निरन्तर भोगते रहते हैं। जब हमारी सौ-दो सौ रुपयों की कोई वस्तु खो जाती है तो हमें कितना दुःख होता है; पर मरण तो सम्पूर्ण वस्तुओं का एक साथ खो जाने का नाम है। आप कल्पना कर सकते हैं, उसके अनुपात में सर्वस्व खो जाने पर कितना दुःख होता होगा ? यही कारण है कि सभी संसारी जीवों को सबसे बड़ा दुःख मरने का लगता है। यह जीव सबकुछ खोकर भी मरने से बचना चाहता है। जीवन में एक बार मरने के दुःख की अपेक्षा जिसे एक श्वांस में १८ बार मरना पड़ता हो; उसे कितना दुःख होगा ह्र इसे आसानी से समझा जा सकता है। मरण के समान जन्म भी कम कष्टदायक नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि वहाँ तो ज्ञान न के बराबर ही है, एकदम बेहोशी जैसी अवस्था है। बेहोशी में दुःख कैसा ? अरे भाई ! ज्ञान का विकास दुःख का कारण थोड़े ही है। ज्ञान का विकास किसी अपेक्षा से सुख का कारण तो हो सकता है; पर दुःख का कारण ज्ञान को मानना तो सबसे बड़ा अज्ञान है। वस्तुतः बात यह है कि ज्ञान के विकास की कमी होने से उसका दुःख प्रगट नहीं हो पाता। प्रगट नहीं हो पाने का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि वह दुःखी नहीं है। निगोदिया जीव वनस्पतिकायिक जीव हैं। निगोदियों के अलावा भी वनस्पतिकायिक जीव होते हैं। पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक एकेन्द्रिय जीव भी तिर्यंचगति में आते हैं। वे भी अनन्त दुःखी ही हैं। इसीप्रकार विकलत्रय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय) भी तिर्यंचगति में आते हैं। ___ मन रहित असैनी पंचेन्द्रिय जीव भी तिर्यंचगति में ही हैं। इसप्रकार सबसे अधिक दुःख कहीं है तो वह तिर्यंचगति में ही है। द्वीन्द्रियादि से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक के जीवों की स्थिति भी तीसरा प्रवचन ४३ लगभग एकेन्द्रिय जैसी ही है। अन्तर मात्र इतना ही है कि उनकी अपेक्षा इनमें ज्ञान का उघाड़ क्रमशः कुछ अधिक हुआ है और बोलने-चालने की भी शक्ति प्रगट हुई है; अतः इनका दुःख कुछ-कुछ प्रगट दिखाई देता है। इन जीवों की क्रोधादि से लड़ना, मारना, काटना, भागना व अन्नादि का संग्रह करना आदि क्रियाएँ दिखाई देती हैं। सर्दी-गर्मी, छेदन-भेदन के दुःख तो सभी को हैं ही। इसप्रकार एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक के जीवों के दुःखों का संक्षिप्त निरूपण करने के उपरान्त अब सैनी पंचेन्द्रिय जीवों के दुःखों की चर्चा चारों गतियों की अपेक्षा करते हैं; क्योंकि एकेन्द्रिय से लेकर असैनी पंचेन्द्रिय तक के जीव तो सभी तिर्यंचगति के ही जीव हैं। सैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के दुःखों का वर्णन मोक्षमार्गप्रकाशक के अनुसार ही छहढ़ाला में इसप्रकार किया गया है ह्र सिंहादिक सैनी है क्रूर, निबल पशू हति खाये भूर । कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अति दीन ।। छेदन-भेदन भूख पियास, भार-वहन हिम-आतप त्रास । बध-बन्धन आदिक दुःख घने, कोटि जीभतँ जात न भने ।। यदि सैनी तिर्यंच सिंहादिक भी हो गया तो निरन्तर निर्बल पशुओं को मारकर खाता रहता है। यदि कभी स्वयं बलहीन दीन पशु हो गया तो अन्य सबल पशुओं का आहार बन जाता है। छेदन-भेदन, भूख-प्यास, बोझा ढोना और सर्दी-गर्मी के दुःख तो भोगने ही पड़ते हैं। इसके अतिरिक्त बाँधा जाना, मारा जाना आदि अनेक प्रकार के इतने दुःख होते हैं कि जिनका कथन करोड़ जिव्हाओं से भी नहीं किया जा सकता। सैनी पंचेन्द्रिय जीव चारों गतियों में पाये जाते हैं। अतः उनके दुःखों का वर्णन गतियों की अपेक्षा किया गया है। गतियों में पाये जानेवाले दुःखों का निरूपण भी पण्डितजी कर्मोदय की अपेक्षा से ही करते हैं। नारकी जीवों में अपेक्षाकृत ज्ञान का विकास अधिक है; तथापि
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy