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________________ ३६ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार जानना - देखना होता नहीं है और जब जानने-देखने की इच्छा नहीं रहती, तब सबकुछ एक साथ जानने-देखने में आ जाता है। एक व्यक्ति प्रतिदिन प्रातः घर के दरवाजे के बाहर चबूतरे पर बैठकर दातुन (दंतमंजन) किया करता था। उसी समय गाँव की गाय भैसें जंगल में चरने को जाने के लिये निकलती थीं। उन भैसों में से एक भैंस के सींग विचित्र रूप से टेड़े-मेढ़े थे। उन्हें देखकर वह सोचता कि यदि इस भैंस के सींगों में मेरी गर्दन फँस जाये तो क्या होगा ? उसकी उक्त जिज्ञासा (जानने की इच्छा ) निरन्तर बलवती होती गई और एक दिन ऐसा आया कि उसने अपनी गर्दन उक्त भैंस के सींगों में स्वयं फँसा ली। इस अप्रत्याशित स्थिति के लिये भैंस तैयार न थी; अतः वह विचक गई और भाग खड़ी हुई। अब जरा विचार कीजिए कि तब क्या हुआ होगा ? हुआ क्या होगा, वह व्यक्ति अस्पताल पहुँच गया, आपातकालीन कक्ष में प्रविष्ठ हो गया । उसकी हालत अच्छी न थी। उसके इष्ट मित्र उसे देखने के लिये अस्पताल पहुँचे और उससे पूँछने लगे कि यह सब कैसे हो गया ? तब कराहते हुये वह कहने लगा कि मेरी गर्दन भैंस के सींगों में फँस वह भड़क गई और यह सबकुछ हो गया। तब लोगों ने पूँछा कि आखिर यह हुआ कैसे ? तब वह कहने लगा। हुआ कैसे, यह जानने के लिये कि ऐसा होने पर क्या होगा ह्न मैंने ही अपनी गर्दन उसके सींगों में फँसा ली थी। उसकी यह बात सुनकर लोग कहने लगे कि ह्न अरे भाई ! गर्दन फँसाने के पहले कुछ सोचना तो चाहिये था। तब बड़ी ही मासूमियत से वह कहने लगा कि मैंने थोड़ा-बहुत नहीं, लगातार छह माह तक सोचा था; इस स्थिति को जानने की जिज्ञासा जब इतनी तीव्र हो गई कि मेरे से नहीं रहा गया; तब मैंने स्वयं ही अपनी गर्दन भैंस के सींगों में फँसा ली। अरे भाई ! यह तो मात्र उदाहरण है; सच्ची बात तो यह है कि हम तीसरा प्रवचन ३७ सभी इसीप्रकार जानने-देखने के लोभ में निरन्तर अपनी गर्दन फँसाये चले जा रहे हैं। मौत की कीमत पर भी समुद्र की तलहटी में चले जाते हैं, आकाश में अपने करतब दिखाते हैं और न मालूम क्या-क्या करते हैं ? जानने की सामर्थ्य थोड़ी और मोह के तीव्र उदय से जानने की इच्छा अनन्त ह्न यही कारण है कि अज्ञानी का क्षयोपशमिक ज्ञानदर्शन भी मोहोदय के कारण अनन्त दुःख का कारण बन रहा है । जानने की इच्छा (जिज्ञासा) के कारण ही बालक अग्नि को छूकर देखना चाहता है। जब कोई तलाक देता है तो लोग उससे जानना चाहते हैं कि पहले से ही अच्छी तरह देखभाल कर, सोच-विचारकर शादी क्यों नहीं की ? यदि पहले से ही सावधान रहते तो यह दिन नहीं देखना पड़ता ? उत्तर में वह कहता है कि मैंने बहुत सोचा था, महिनों तक डेटिंग (शादी के पहले मिलना-जुलना ) की थी; फिर भी । अरे भाई ! सभी ने इसीप्रकार सोच-सोचकर गर्दन फँसाई है और अब भोग रहे हैं। टी.वी. और सिनेमा का देखने-दिखाने का अरबों रुपयों का व्यवसाय चल रहा है। वहाँ है क्या, मात्र नग्न चित्रों को देखने की इच्छा ही इस अनुपयोगी व्यवसाय को पनपा रही है। मोहनीय कर्म में, विशेषकर दर्शन मोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व के उदय में यह जीव लगभग सम्पूर्ण जगत से अपनापन स्थापित कर लेता है; जो पदार्थ इसके ज्ञान के ज्ञेय बनते हैं, उनसे ही अपनापन स्थापित कर लेता है। इसप्रकार के लोगों की वृत्ति और प्रवृत्ति का चित्रण पण्डित टोडरमलजी इसप्रकार करते हैं “जैसे ह्र पागल को किसी ने वस्त्र पहिना दिया। वह पागल उस वस्त्र को अपना अंग जानकर अपने को और वस्त्र को एक मानता है। वह वस्त्र पहिनानेवाले के आधीन होने से कभी वह फाड़ता है, कभी जोड़ता है, कभी खोंसता है, कभी नया पहिनाता है ह्र इत्यादि चरित्र करता है।
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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