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________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार है कि यदि संसार के दुःखों से बचना है तो मोक्ष प्राप्त करने का पुरुषार्थ करो। इस लोक में ऐसे लोग सदा ही रहे हैं कि जो यह कहते रहते हैं कि सख प्राप्त करने के लिये मोक्ष में जाने की क्या जरूरत है: हम इस संसार को ही स्वर्ग बना देंगे। पण्डितजी कहते हैं कि भाई ! स्वर्ग भी तो संसार में ही है; पर स्वर्ग में भी सुख कहाँ है ? स्वर्ग-नरक सभी संसार में हैं और संसार दुःखरूप ही हैं, सुख तो एकमात्र मोक्ष में ही है। प्रश्न : दूसरे अधिकार में तो यह कहा था कि बंध का निमित्त तो एकमात्र मोहकर्म का उदय ही है और यहाँ आठों ही कर्मों के उदय को दुःखरूप सिद्ध किया जा रहा है ? उत्तर :ह्न उक्त दोनों कथनों के दृष्टिकोणों में अन्तर यह है कि वहाँ तो मोहनीय कर्म के उदय में होनेवाले मोह-राग-द्वेष भाव बंध के कारण हैं ह्र यह बताया गया है और यहाँ यह बता रहे हैं कि मोह को छोड़कर ज्ञानावरणादि सात कर्मों के उदय में जो अवस्थाएं हो रही हैं, जो संयोग प्राप्त हो रहे हैं; वे भी सुखरूप नहीं हैं, संतोष करने योग्य नहीं हैं; क्योंकि मोह का उदय विद्यमान होने से वे अवस्थाएँ भी दुःखरूप ही हो रही हैं। ____ ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जो कुछ जानना होता है; उसमें भी अनेक पराधीनताएँ हैं। स्वस्थ इन्द्रियाँ और प्रकाशादि बाह्य अनुकूलतायें तो चाहिये ही; एक सुनिश्चित दूरी और समीपता भी चाहिये। यदि कोई वस्तु बहुत दूर हुई भी तो भी दिखाई नहीं देगी और अधिक पास हुई तो भी दिखाई नहीं देती। उक्त अवस्था का चित्रण करते हुये पण्डित टोडरमलजी लिखते हैं ह्र "वहाँ इच्छा तो त्रिकालवर्ती सर्वविषयों को ग्रहण करने की है। मैं सर्व का स्पर्श करूँ, सर्व का स्वाद लूँ, सर्व को , सर्व को देखू, सर्व को सुनूँ, सर्व को जानें: ह्र इच्छा तो इतनी है; परन्तु शक्ति इतनी ही है कि तीसरा प्रवचन इन्द्रियों के सम्मुख आनेवाले वर्तमान स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द; उनमें से किसी को किंचित् मात्र ग्रहण करे तथा स्मरणादिक से मन द्वारा किंचित् जाने, सो भी बाह्य अनेक कारण मिलने पर सिद्ध हो। इसलिए इच्छा कभी पूर्ण नहीं होती। ऐसी इच्छा तो केवलज्ञान होने पर सम्पूर्ण हो । क्षयोपशमरूप इन्द्रियों से तो इच्छा पूर्ण होती नहीं है; इसलिये मोह के निमित्त से इन्द्रियों को अपने-अपने विषय ग्रहण की निरन्तर इच्छा होती ही रहती है; उससे आकुलित होकर दुःखी हो रहा है। ऐसा दुःखी हो रहा है कि किसी एक विषय के ग्रहण के अर्थ ( लिये ) अपने मरण को भी नहीं गिनता है। जैसे हाथी को कपट की हथिनी का शरीर स्पर्श करने की, मच्छ को बंसी में लगा हुआ मांस का स्वाद लेने की, भ्रमर को कमल-सुगन्ध सूंघने की, पतंगे को दीपक का वर्ण देखने की और हिरण को राग सुनने की ऐसी इच्छा होती है कि तत्काल मरना भासित हो; तथापि मरण को नहीं गिनते। विषयों का ग्रहण करने पर उसके मरण होता था, विषयसेवन नहीं करने पर इन्द्रियों की पीड़ा अधिक भासित होती है। इन इन्द्रियों की पीड़ा से पीड़ितरूप सर्व जीव निर्विचार होकर जैसे कोई दुःखी पर्वत से गिर पड़े, वैसे ही विषयों में छलाँग लगाते हैं। नाना कष्ट से धन उत्पन्न करते हैं, उसे विषय के अर्थ खोते हैं। तथा विषयों के अर्थ जहाँ मरण होना जानते हैं, वहाँ भी जाते हैं । नरकादि के कारण जो हिंसादिक कार्य, उन्हें करते हैं तथा क्रोधादि कषायों को उत्पन्न करते हैं। वे करें क्या ? इन्द्रियों की पीड़ा सही नहीं जाती; इसलिये अन्य विचार कुछ आता नहीं। इसी पीड़ा से पीड़ित हुए इन्द्रादिक हैं; वे भी विषयों में अति आसक्त हो रहे हैं। जैसे खाज-रोग से पीड़ित हुआ पुरुष आसक्त होकर खुजाता है, पीड़ा न हो तो किसलिये खुजाये; उसीप्रकार इन्द्रिय रोग से पीड़ित हुए इन्द्रादिक आसक्त होकर विषय सेवन करते हैं। पीड़ा न हो तो किसलिये विषय सेवन करें ?
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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