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________________ १८ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार दर्शन मोहनीय अर्थात् मिथ्यात्व के उदय से यह जीव ज्ञानदर्शनस्वभावी भगवान आत्मा को तो जानता नहीं, उसे अपना मानता नहीं, उसमें अपनापन स्थापित करता नहीं; और अघातिया कर्मों के उदय में प्राप्त होनेवाले शरीर, स्त्री, पुत्रादि, धन-मकानादि संयोगों में, नोकर्मों में अपनापन स्थापित करता है; इन्हें ही निजस्वरूप स्वीकार करता है। तथा चारित्र मोहनीय के उदय से उनमें ही इष्टानिष्ट बुद्धिपूर्वक जमता-रमता है; उन्हें ही अनुकूल-प्रतिकूल मानकर राग-द्वेष करता है, क्रोधादिरूप परिणमित हो रहा है। ये मिथ्यात्व और कषायभाव ही मुख्यरूप से बंध के कारण हैं, इसलिये जिन्हें संसार दुःखों से बचना हो; वे मिथ्यात्व से बचें और कषायभाव न करें। यद्यपि यह सत्य है कि मरीज को परहेज से रहना चाहिये, बदपरहेजी नहीं करना चाहिये; तथापि सही परहेज क्या है और बदपरहेजी क्या है? यह जानना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य है; क्योंकि परहेज और बदपरहेज को जाने बिना परहेज करना और बदपरहेजी छोड़ना संभव नहीं है। इसीप्रकार यद्यपि यह सत्य है कि भवरोग के रोगी को परहेज से रहना चाहिये, बदपरहेजी नहीं करना चाहिये; तथापि यह जानना बहुत जरूरी है कि भवरोग का परहेज क्या है और बदपरहेजी क्या है? यह कहता है कि मुझे कर्मबंध हो रहा है; इसलिये मैंने मूंग की दाल खाना बंद कर दिया है। अरे भाई ! मूंग की दाल से कौन से कर्मों का बंध होता है, जो तूने मूंग की दाल खाना छोड़ दिया है। कर्म तो मिथ्यात्व और कषायभावों से बंधते हैं; उन्हें छोड़ने की तो बात ही नहीं करता और धर्म के नाम पर बाहरी क्रियाकाण्डों में उलझ कर रह जाता है। अरे भाई ! परहेज मिथ्यात्वादिभावों से करना है और तू धर्म के नाम पर बाह्य क्रियाकाण्ड और शुभभावों में ही उलझ कर रह गया है। अघातिया कर्मों के उदय में प्राप्त होनेवाले अनुकूल-प्रतिकूल संयोगों दूसरा प्रवचन को अज्ञानी जगत ने सुख-दुःख की सामग्री मान लिया है; परन्तु यह जीव दुःखी तो संयोगों में अपनत्व स्थापित करने से हुआ है, उन्हें निजरूप जानने से हुआ है, उन्हीं में एकत्वबुद्धिपूर्वक रमने-जमने से हुआ है और इन शरीरादि परद्रव्यों में एकत्व-ममत्व तो मिथ्यात्वकर्म के उदय में होता है। संयोगी पदार्थ तो न सुखरूप हैं, न दुःखरूप हैं; वे सुख-दुःख के कारण भी नहीं हैं। सुख-दुःख का मूल कारण तो हमारी उल्टी मान्यता में ही समाहित हैं। ___ आयुकर्म तो मात्र इसमें ही निमित्त है कि यह जीव किस गति में कितने काल तक रहेगा ? नामकर्म शरीर की संरचना से संबंध रखता है और गोत्रकर्म तो लोकमान्य कुल और नीच कुल से संबंध रखता है। इनके कारण किसी के पेट में दर्द रहता हो ह्न ऐसी बात नहीं है। हमारा रंग काला हो या गोरा, इसके कारण हमें शारीरिक सुख-दुःख नहीं होते; वे तो मोहोदय के परिणाम हैं। मोह के बिना अघातिकर्म जरी-जेवरी के समान है। अतः मोहनीय कर्म को छोड़कर शेष सात कर्म और उनके उदय में प्राप्त होने वाले संयोग और औदायिक अज्ञानादिभाव न तो बंध के कारण हैं और न मूलतः सुख-दुःखरूप ही हैं। सांसारिक सुख-दुःख का मूल कारण तो एकमात्र मोह है, मोहनीय कर्म के उदय में होनेवाले परद्रव्यों में एकत्व-ममत्व और कर्तृत्व-भोक्तृत्व मिथ्यादर्शन और राग-द्वेषरूप कषायभाव हैं। अपने में अपनापन आनन्द का जनक है, परायों में अपनापन आपदाओं का घर है, यही कारण है कि अपने में अपनापन ही साक्षात् धर्म है और परायों में अपनापन महा-अधर्म है। अपने में से अपनापन खो जाना ही अनन्त दुःखों का कारण है और अपने में अपनापन हो जाना ही अनन्त सुख का कारण है। अनादिकाल से यह आत्मा अपने को भूलकर ही अनन्त दु:ख उठा रहा है। ह्र आत्मा ही है शरण, पृष्ठ-४६
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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