SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोक्षमार्गप्रकाशक का सार ह्न योग से प्रकृति और प्रदेश बंध होते हैं और कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होते हैं; किन्तु महाशास्त्र तत्त्वार्थसूत्र में यह कहा गया है कि ह्न 'मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बंधहेतव: । ' ह्न मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये पाँच भावबंध के कारण हैं। अतः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आचार्यों में यह मतभेद क्यों? महापण्डित टोडरमलजी के ध्यान में यह बात आयी थी और बिना किसी विवाद के उन्होंने बड़ी ही सरलता से उक्त शंका का समाधान कर दिया। वे लिखते हैं ह्न मोह के उदय से जो मिथ्यात्व और क्रोधादि भाव होते हैं, उन सबका नाम सामान्यतः कषाय है। उनसे उन कर्मप्रकृतियों की स्थिति बंधती है। तथा उस कषाय द्वारा ही उन कर्म प्रकृतियों में अनुभाग शक्ति का विशेष होता है। ध्यान रहे यहाँ मिथ्यात्व क्रोधादि में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय लेना चाहिये। उक्त चारों का नाम सामान्यतः कषाय है। आगे चलकर वे स्वयं कषाय शब्द का प्रयोग उक्त चारों के अर्थ में करते हैं। तात्पर्य यह है कि जब वे यह लिखते हैं ह्र २२ 'जिन्हें बंध नहीं करना हो, वे कषाय न करें। " तब उसका अर्थ यही होता है कि जिन्हें बंध नहीं करना हो; वे मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय नहीं करें। एक बात यह भी तो है कि तत्त्वार्थसूत्र में बंध के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ह्न ये पाँच कारण बताये हैं और गोम्मटसार में मात्र कषाय और योग ह्न इन दो को ही बंध का कारण बताया गया है। ऐसी स्थिति में तत्त्वार्थसूत्र में लिखित शेष तीन कारणों को कषाय और योग में ही गर्भित मानना होगा। १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ- २७ २. वही, पृष्ठ- २८ ३. वही, पृष्ठ २८ दूसरा प्रवचन २३ योग में तो वे समाहित हो नहीं सकते। अतः उपायान्तर का अभाव होने से उन्हें कषाय में ही शामिल मानना होगा। अतः यह परमसत्य है कि मिथ्यात्व से लेकर कषाय तक के सभी भाव गोम्मटसार के इस प्रकरण में कषाय शब्द में ही गर्भित किये गये हैं। कषाय है अंत में जिनके ऐसे मिथ्यात्वादि सभी भाव कषायभाव ही हैं। यहाँ कषाय शब्द अंतदीपक के रूप में प्रयोग में आया है। यहाँ एक प्रश्न संभव है कि जब बंध कषाय और योग से होता है तो कषाय न करें ह्र अकेला यह क्यों लिखा है, योग की बात को क्यों छोड़ दिया। अरे भाई! योग के अभाव के लिये तो अनन्तवीर्य और अतुल्य बल के धनी अरहंत भगवान भी कुछ नहीं करते । शास्त्रों में लिखा है कि अरहंत भगवान के आत्मप्रदेशों का कंपन हम-तुम से भी अधिक होता है । यथासमय सहज ही योगनिरोध होता है और अयोग केवली होकर वे मोक्ष में चले जाते हैं। बंध के कारणरूप मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय व योग में सबसे पहले मिथ्यात्व का अभाव होता है; फिर क्रमशः अविरति, प्रमाद व कषायें जाती हैं और सबसे अंत में योग का अभाव होता है। आज लोग उल्टी प्रक्रिया अपना रहे हैं। कहते हैं कि सबसे पहले हमें योगा के माध्यम से मन-वचन-काय को काबू में करना चाहिये और फिर कषायें छोड़ना चाहिये, कम करना चाहिये। उसके बाद प्रमाद से बचने की बात व अविरति का त्याग करने की बात की जाती है। मिथ्यात्व को छोड़ने की तो कोई बात ही नहीं करता है । अरे भाई ! मिथ्यात्व के छूटे बिना अविरति, प्रमाद और कषायें नहीं छूटतीं, कम भी नहीं होती तथा योग तो १३वें गुणस्थान में केवली के भी होता है, यही कारण है उन्हें सयोग केवली कहा जाता है। जिन योगों के अभाव के लिये केवली भी कुछ नहीं करते हम उन्हें
SR No.009458
Book TitleMoksh Marg Prakashak ka Sar
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy