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________________ जिनधर्म-विवेचन भोगती नहीं है; उसीप्रकार ज्ञान भी अकारक व अवेदक है तथा बन्ध, मोक्ष, कर्मोदय और निर्जरा को मात्र जानता ही है।" २. समयसार कलश १९८ में भी यही विषय स्पष्टरूप से व्यक्त हुआ है - आचार्य कुन्दकुन्द ही प्रवचनसार गाथा २८ में लिखते हैं - "ज्ञान ज्ञेयों में प्रवेश नहीं करता और ज्ञेय भी ज्ञान में नहीं आते। जिसप्रकार रूपीपदार्थ नेत्र के ज्ञेय हैं; उसीप्रकार सभी पदार्थ ज्ञानस्वभावी आत्मा के ज्ञेय हैं; फिर भी वे ज्ञान और ज्ञेय, एक-दूसरे में प्रवेश नहीं करते।" ३. समयसार कलश २२२ में भी यह विषय आया है - "जिसप्रकार दीपक, दीपक से प्रकाशित होनेवाले पदार्थों से विक्रिया को प्राप्त नहीं होता; उसीप्रकार शुद्धबोध है महिमा जिसकी - ऐसा यह पूर्ण, एक और अच्युत आत्मा, ज्ञेयपदार्थों से किंचित्मात्र भी विक्रिया को प्राप्त नहीं होता। ऐसी स्थिति होने पर भी जिनकी बुद्धि इसप्रकार की वस्तुस्थिति के ज्ञान से रहित है - ऐसे अज्ञानी जीव अपनी सहज उदासीनता छोड़कर राग-द्वेषमय होते हैं - यह बड़े खेद की बात है, आश्चर्य की बात है।" ४. श्री कार्तिकेयस्वामी ने कार्तिकेयानुप्रेक्षा शास्त्र की गाथा २५६ में भी प्रमेयत्वगुण का खुलासा किया है - "ज्ञान जीव के प्रदेशों में रहता हुआ ही सबको जानता है। ज्ञान, ज्ञेय में नहीं जाता है और ज्ञेय भी ज्ञान के प्रदेशों में नहीं जाता है। अपने-अपने प्रदेशों में रहते हैं तो भी ज्ञान और ज्ञेय के ज्ञेय-ज्ञायक व्यवहार है। जैसे - दर्पण, अपने स्थान पर है और घटादिक वस्तुएँ अपने स्थान पर हैं तो भी दर्पण की स्वच्छता ऐसी है, मानो कि दर्पण में घट आकर ही बैठ गया हो - ऐसे ही ज्ञान-ज्ञेय का व्यवहार जानना चाहिए।" इसीप्रकार नाटक समयसार, सर्वविशुद्धि अधिकार, छन्द ५३, आलापपद्धति, गुणव्युत्पत्ति अधिकार, सूत्र ९८; अनुभवप्रकाश, ज्ञेयाधिकार, पृष्ठ ६६ एवं समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रन्थों में अनेक स्थानों पर प्रमेयत्वगुण के सम्बन्ध में स्पष्टीकरण आया है। प्रमेयत्वगुण-विवेचन १८७. प्रश्न - प्रमेयत्वगुण को न मानने से क्या हानि होती है? उत्तर - प्रमेयत्वगुण को न मानने से द्रव्य को अज्ञात मानना होगा, जिससे ज्ञान और ज्ञाता की भी सिद्धि नहीं होगी। यदि ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता का अभाव होगा तो सर्व शून्यता का प्रसंग आ जाएगा, जो प्रत्यक्षतः विरुद्ध है। ज्ञेय और ज्ञाता की सिद्धि न होने से केवलज्ञानादि की भी सिद्धि नहीं होगी। जगत् में जो कोई ज्ञेय है, उसका कोई न कोई ज्ञाता अवश्य है। जैसे - रोगी की छाती का ‘एक्स-रे' निकाला जाता है। उस समय यद्यपि रोगी को तो उस एक्स-रे से कुछ भी ज्ञान नहीं होता है; किन्तु डॉक्टर उस एक्स-रे को देखकर जो जानना चाहिए, वह सब जान लेता है। हिन्दी भाषा-भाषी मनुष्य, तमिल और तेलगु आदि भाषाओं को नहीं जानते; किन्तु तमिलनाडु और आन्ध्रप्रदेश आदि के मनुष्य, उन भाषाओं को जानते ही हैं। तमिल-तेलगु भाषा, हमारे ज्ञान का ज्ञेय नहीं है; किन्तु उन भाषाओं को जाननेवालों को तो वह सहजरूप से ज्ञेय है। ____ जगत् में किसी भी अल्पज्ञ जीव के ज्ञान के जो विषय/ज्ञेय नहीं हैं, वे पदार्थ, सर्वज्ञ भगवान के केवलज्ञान के ज्ञेय तो बनेंगे ही बनेंगे; अतः प्रमेयत्वगुण के कारण कोई भी पदार्थ, ज्ञान से अज्ञात या अज्ञेय नहीं रह सकता। इसीप्रकार आत्मा में प्रमेयत्वगुण को न मानने से होनेवाली कुछ बड़ी-बड़ी हानियाँ निम्नप्रकार हैं - १. यदि आत्मा में प्रमेयत्वगुण को न माना जाए तो कोई भी जीव अपने __को जान ही नहीं सकता। २. यदि जीव, स्वयं को ही नहीं जान सकता तो वह आत्मज्ञानी कैसे बन सकता है? ३. यदि आत्मज्ञानी नहीं हो सकता तो न श्रावक हो सकता है और न मुनि; अतः मोक्षमार्ग का ही अभाव होने की आपत्ति आती है। (81)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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