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________________ १५६ जिनधर्म-विवेचन तथा आनन्दकारी है। दुःखमय संसारदशा से मुक्त होने की व्यवस्था तो वस्तु के स्वरूप में है ही और सुखमय सिद्ध अवस्था का भी सादि अनन्तकाल तक चिरस्थायी रहने का नियम है। सुखमयी सिद्ध अवस्था से कोई जीव दुःखमयी संसार अवस्था में कभी आता ही नहीं है । इसकारण ही जैनदर्शन में किसी भगवान ने अवतार लिया हो, यह बात है ही नहीं। ___संसार में अवतार लेने का कोई कारण भी नहीं रहता है; क्योंकि सिद्धालय में विराजमान सिद्धजीव को वहाँ कभी कोई कमी या आवश्यकता का अनुभव ही नहीं होता, जिसकी पूर्ति हेतु वे संसार में अवतार लेकर करें। वास्तव में तो संसार से सिद्धालय में जाने का एक तरफा मार्ग (One way Traffic) है। संसार से सिद्धालय में जाने का मार्ग तो है. लेकिन सिद्धालय से संसार में आने का कोई मार्ग ही नहीं है। ८. किसी भी इष्ट-अवस्था को सुखदायक मानकर, उसमें स्थायीपने का भाव रखना ही पर्यायमूढ़ता है। द्रव्यत्वगुण को जानने पर पर्याय में स्थायीपने का भाव ही उत्पन्न नहीं होता; अतः पर्याय का यथार्थ ज्ञान तो होता ही है, पर दुःखदायक पर्यायमूढ़ता का सहज ही परिहार हो जाता है। ९. कर्म को बलवान मानने की खोटी मान्यता नष्ट हो जाती है। द्रव्यत्वगुण के ज्ञान बिना अज्ञानी जीव निमित्ताधीन दृष्टिवान बनकर यह मानता है कि क्रोधादिक कषाय- परिणामों को कर्म ही कराता है, कर्म ही मुझे दुःख दे रहा है - इस मान्यता से ही वह दुःखी होकर भ्रमित हो जाता है। जब वह वस्तुस्वरूप का यथार्थ निर्णय ही नहीं कर पाता तो धर्म कहाँ और कैसे कर सकता है? द्रव्यत्वगुण के कारण क्रोधादि विकारी परिणाम भी जीव का कार्य है और वह अपराध भी जीव का ही है - ऐसी यथार्थ मान्यता होने पर कर्म के बलवानपने का मिथ्याभाव सहज ही निकल जाता है और स्वावलम्बन का यथार्थ पुरुषार्थ जागृत होता है। इसप्रकार 'द्रव्यत्वगुण' का ११ प्रश्नोत्तर के साथ विवेचन पूर्ण होता है। . प्रमेयत्वगुण-विवेचन ।। मङ्गलाचरण ।। सब द्रव्य गुण प्रमेयत्व से, बनते विषय हैं ज्ञान के; रुकता न सम्यग्ज्ञान पर से, जानिये यों ध्यान से। आत्मा अरूपी ज्ञेय निज, यह ज्ञान उसको जानता: है स्व-पर सत्ता विश्व में, सुदृष्टि उनको मानता ।। प्रत्येक द्रव्य में अनादिकाल से प्रमेयत्व नाम का एक सामान्य गुण है। इस गुण से ही सभी द्रव्य-गुण-पर्याय, ज्ञान के ज्ञेय (विषय) बनते हैं। किसी भी परद्रव्य के निमित्त से जीव का सम्यग्ज्ञानरूपी कार्य बाधित नहीं होता - यह साधक को अच्छी तरह जानना/स्वीकारना चाहिए। अपना अरूपी आत्मा भी प्रमेयत्वगुण के कारण ही ज्ञान का ज्ञेय बनता है। इसी गुण के कारण सम्यग्दृष्टि जीव, विश्व में स्थित स्व-पर पदार्थों की सत्ता को स्वीकार करता है। १७६. प्रश्न - प्रमेयत्वगुण के कथन की क्या आवश्यकता है? उत्तर - हमें प्रमेयत्वगुण को जानने की क्या आवश्यकता है? - यह निम्न बिन्दुओं से स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है - १. रूपी होने से मात्र पुद्गलद्रव्य ही ज्ञेय हों - ऐसी बात नहीं है। प्रमेय होने से अरूपी जीव आदि पाँच द्रव्य भी ज्ञेय हैं - यह बात स्पष्ट होती है। २. जीव अर्थात् मेरा, बाकी सभी द्रव्यों से मात्र ज्ञाता-ज्ञेय सम्बन्ध ही है; अन्य कोई कर्ता-कर्म आदि सम्बन्ध नहीं है - यह विषय भी सहजरूप से अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। ३. ज्ञाता सम्यग्दृष्टि जीव, अपने को स्वज्ञेय बनाकर, आत्मानुभवी हो सकता है - यह बात सहज समझ में आ जाती है। (79)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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