SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ जिनधर्म-विवेचन वस्तुत्वगुण-विवेचन १४३ १५९. प्रश्न - हम लौकिक-व्यवहारिक जीवन में प्रत्यक्ष देखते हैं कि अनेक व्यक्ति अपना दुकान-मकान का कार्य करते हैं। अनेक लोग सेवाभाव से अनेक संस्थाओं और देश-सेवा का कार्य भी करते हैं तो उन्हें करने दो, रोकते क्यों हो? उत्तर - हम उन्हें रोकते कहाँ हैं? हम तो वस्तु-व्यवस्था का यथार्थ ज्ञान कराते हैं। भाई! कोई अपनी मनमर्जी से मैं सब काम कर सकता हूँया कर रहा हूँ - ऐसी मिथ्या मान्यता करता रहे तो उसे कौन रोक सकता है? गृहस्थ को अपने जीवन में विद्यमान रागवश कुछ कार्य करने का भाव आता है, उसका भी यहाँ निषेध करने का प्रयोजन नहीं है। हमें तो वस्तुत्वगुण की परिभाषा के परिपेक्ष्य में यह समझाना है कि जीव, अपने स्वभाव के अनुसार मात्र प्रयोजनभूत कार्य ही कर सकता है, अन्य नहीं। जीव का स्वभाव तो मात्र जानना है - इसकी मुख्यता से ही यहाँ कथन चल रहा है। आध्यात्मिक कवि डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल ने एक कविता में कहा है - शुद्धातम है मेरा नाम, मात्र जानना मेरा काम। यह काव्यांश बालबोध पाठमाला' से लिया गया है; अतः यह बालकों के लिए है, प्रौढ़ों के लिए नहीं - ऐसा सोचना भी युक्तिसंगत नहीं है। यह तथ्य तो जिनागम के अनुसार अध्यात्म का प्राण' है। एक अपेक्षा से तो यह द्वादशांग अर्थात् सम्पूर्ण जिनेन्द्र वाणी का संक्षिप्त सार है। कोई विषय, कदाचित् हमारी समझ में नहीं आता हो तो वह विषय ही असत्य है, यह तो नहीं कहा जा सकता। ऐसा कथन करना तो जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्ररूपित परम सत्य तत्त्व का सीधा विरोध करना है और जो निगोद का ही कारण है। १६०. प्रश्न - वस्तुत्वगुण के कारण द्रव्य को क्या कहते हैं? उत्तर - वस्तुत्वगुण के कारण से द्रव्य को 'वस्तु' कहते हैं। १६१. प्रश्न - वस्तुत्वगुण को न मानने से क्या हानि है? उत्तर - वस्तुत्वगुण को न मानने से द्रव्य के निरर्थकपने का अर्थात् कार्य-शून्यता का प्रसंग उपस्थित होता है। १६२. प्रश्न - वस्तुत्वगुण को जानने से हमें क्या-क्या लाभ प्राप्त होते हैं? उत्तर - वस्तुत्वगुण को जानने से हमें निम्न लाभ प्राप्त होते हैं - १. प्रयोजनभूतक्रिया का अर्थ यह है कि प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करता है। प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र है, उसमें उसका अपना पृथक् वस्तुत्वगुण है, उसके कारण वह द्रव्य निरन्तर अपना कार्य करता ही रहता है। जैसे, कहीं घास पड़ी हो और वह सड़ रही हो तो वह सड़ना भी उसका वैभाविक स्वभाव है, उसे अनिष्ट जानना तो रागमिश्रित ज्ञान है। उसका सडना भी उसके पराश्रित वैभाविक स्वभाव की सार्थकता है तथा न सड़ते हुए सुरक्षित रहना भी स्वभाव के अनुसार ही है; इसप्रकार जगत का कोई भी पदार्थ निरर्थक नहीं है - ऐसा ज्ञान होता है। २. ईश्वर के कर्तृत्व का निषेध हो जाता है। क्योंकि किसी भी एक द्रव्य में होनेवाला कार्य, किसी भी अन्य द्रव्य के कारण से नहीं होता। इसप्रकार प्रत्येक वस्तु के होनेवाले कार्य में पराधीनता का सर्वथा निषेध हो जाता है। इसप्रकार प्रत्येक द्रव्य की प्रयोजनभूत क्रिया, उसके वस्तुत्वगुण के कारण से होती है; अन्य किसी कारण से नहीं - ऐसे प्रत्येक वस्तु की स्वतन्त्रता का ज्ञान होता है। ३. अपने कार्य में पर की प्रतीक्षा या अपेक्षा का भाव, सहज ही छूट जाता है तथा अपना कार्य, स्वयं करने में उमंगपूर्वक उत्साह बढ़ता है। ४. जब जीव, किसी भी कार्य को इष्ट या अनिष्ट मानता है तो रागद्वेष उत्पन्न होते हैं; किन्तु वस्तुत्वगुण के कारण कोई भी कार्य इष्टअनिष्ट लगता ही नहीं है; परिणामस्वरूप समताभाव उत्पन्न होने से वीतरागता का प्रादुर्भाव होने लगता है। ५. जानना, जीव का स्वभाव है; स्वभाव, कभी दःख का कारण हो ही नहीं सकता। स्वभाव तो सुख से परिपूर्ण रहता है - ऐसा पता चलता है। जैसे - जब हम कोई वस्त्रादि खरीदते हैं, तब यदि किसी मित्रादि के द्वारा उसे महंगा सौदा बताया जाए तो हमें खरीदा हुआ सामान महंगा लगने लगता है; तब हम सोचते हैं कि हमारा पैसा अनावश्यकरूप से अधिक खर्च हो गया, यह जानकर हमें दुःख होने लगता है; अतः जानना, (72)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy