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________________ १३० जिनधर्म-विवेचन ६. मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने नियमसार, गाथा ३४ की टीका में लिखा है - 'अस्ति' इत्यस्य भावः अस्तित्वम् अर्थात् ‘पदार्थ का अस्ति (है, अस्तित्व, होना) - ऐसा भाव ही अस्तित्व है।' आलापपद्धति आदि ग्रन्थों में भी यद्यपि 'सत्' विषयक कथन आया है, तथापि विस्तार-भय से उनके उद्धरण देने से विराम लेते हैं। १४७. प्रश्न - 'मैं तुम्हारी सत्ता का ही नाश कर दूंगा' - ऐसी भावना रखने से कौन-सा पाप होता है? तथा कितने ज्ञानियों का विरोध होता है? उत्तर - इस प्रश्न का संक्षेप में उत्तर निम्न प्रकार है - १. मिथ्यात्वरूप पाप होता है; क्योंकि ऐसा मानने में वस्तुस्वरूप से विरुद्ध श्रद्धान होता है। २. देव-शास्त्र-गुरु का भी अविनय हुआ; क्योंकि उनके उपदेश का स्वीकार नहीं करने से और तीव्र कषाय होने से सत्य उपदेश का विरोध होता है। ३. चौथे गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यन्त विद्यमान सब सम्यग्ज्ञानी साधक जीवों का - सम्यग्दृष्टि से लेकर अरहन्त व सिद्धों का भी विरोध होता है; क्योंकि इसमें ज्ञानीजनों के सम्यग्ज्ञान का विरोध होता है। १४८. प्रश्न - अस्तित्वगुण को न मानने से मात्र द्रव्य के अभाव का प्रसंग आता है तो आवे, उससे हमारा क्या बिगाड़ है? उत्तर - अस्तित्वगुण को न मानने से मात्र द्रव्य के अभाव की ही आपत्ति नहीं आती; परन्तु द्रव्य के अभाव के साथ-साथ अन्य भी अनेक प्रकार की आपत्तियाँ उपस्थित होती हैं, जो निम्न प्रकार हैं - १. द्रव्य का अभाव होने पर विश्व के अभाव की भी स्थिति उत्पन्न हो जाती है; क्योंकि छह द्रव्यों के समूह को ही विश्व कहते हैं। २. द्रव्य, जिन गुणों का समुदाय है या जिन गुणों से द्रव्य बना है, उन गुणों का भी अभाव हो जाता है। अस्तित्वगुण-विवेचन १३१ ३. गुणों का अभाव होते ही उनके कार्यरूप पर्यायों का भी अभाव अनिवार्य हो जाता है। ४. समस्त विश्व-व्यवस्था ही समाप्त हो जाती है। ५. हम-तुम कहाँ रहेंगे? अर्थात् सर्व शून्यता का प्रसंग उपस्थित हो जाता है। १४९. प्रश्न - अस्तित्वगुण को जानने से हमें क्या-क्या लाभ प्राप्त होते हैं? उदाहरण के साथ सलभरूप से स्पष्ट करें। उत्तर - अस्तित्वगुण को जानने से अनेक लाभ प्राप्त होते हैं - १. मनुष्य को ही नहीं, अपितु चारों गति में नारकी को छोड़कर प्रत्येक जीव को अपनी वर्तमानकालीन पर्याय के नाश का अर्थात् मरण का सदैव भय बना रहता है। नरक के नारकी भी मारणान्तिक वेदना निरन्तर भोगते हैं और स्वर्ग के देवों के मरणजन्य दुःख को हम-आप प्रत्यक्ष देख-जान नहीं सकते, इसके लिए तो हमें जिनागम ही प्रमाण है तथा मनुष्य और तिर्यंचों के जन्म-मरण के दुःख तो हम प्रत्यक्षरूप से देख ही रहे हैं। तिर्यंचों के जन्म-मरण की चर्चा को हम यहाँ गौण कर देते हैं; क्योंकि हम तिर्यंच नहीं हैं। वर्तमान भव में तो हम पर्याय की अपेक्षा मनुष्य जीव हैं; अतः मनुष्यों के ही दुःखों पर थोड़ा विचार/मनन/चिन्तन प्रगट करते हैं। ___ हमने माँ के गर्भ में ९ माह रहकर वहाँ शब्दातीत दुःख भोगा है। उसके पश्चात् इस जगत् में हमने जन्म लिया। इस जन्मजनित दुःख को भी हम प्राप्त पर्याय में मग्न होकर भूल ही गये, अतः जन्मजनित दुःख को भी हम गौण करते हैं। मात्र मनुष्य के मरण-विषयक दुःख पर विचार करते हैं - ___ कैसी विचित्र बात है कि मनुष्यभव में मरण का दुःख तो हम-सबको नियम से एक ही बार भोगना पड़ता है; किन्तु मरण का भय हमेशा/ प्रत्येक समय, हम सबको बना ही रहता है। (66)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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