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________________ जिनधर्म-विवेचन १२८. प्रश्न - गुण की परिभाषा/स्वरूप जानने से हमें क्या लाभ हैं? उत्तर - १. गुणों से द्रव्य की सिद्धि होती है, जिससे हमें द्रव्य का परिचय प्राप्त होता है, उसकी महिमा आती है। ___ जीवद्रव्य का परिचय प्राप्त करना हो तो हम ज्ञानादि गुणों से जीवद्रव्य का परिचय प्राप्त कर सकते हैं। एक अपेक्षा से गुणों को द्रव्य का उत्पादक भी कह सकते हैं; क्योंकि ज्ञानादि गुणों से ही तो जीवद्रव्य बना है। यदि गुण नहीं होते तो द्रव्य भी नहीं होता; क्योंकि गुणों का समूह ही तो द्रव्य है। यदि ज्ञानादि गुण नहीं होते तो जीवद्रव्य भी नहीं होता; तथा यदि स्पर्शादि गुण नहीं होते तो पुद्गलद्रव्य भी नहीं होता। इसीप्रकार अन्य द्रव्यों के सम्बन्ध में भी समझ सकते हैं। २. एक गुण, उसी द्रव्य के अन्य गुणों में कुछ नहीं कर सकता; क्योंकि प्रत्येक गुण का लक्षण/स्वभाव भिन्न-भिन्न होता है - ऐसा बोध होने से आकुलता मिटती है और कर्ताबुद्धि का नाश होता है। उदाहरण के लिए हम आम के फल को पुद्गलद्रव्य के रूप में सामने रखते हैं। सामान्यतः जब आम पीला होता है, तब मीठा हो जाता है; किन्तु पीला आम मीठा ही हो - यह नियम नहीं है। क्योंकि कुछ आम अत्यन्त पीले हो जाने पर भी मीठे नहीं होते, खट्टे ही रहते हैं। साथ ही बहुत से हरे-हरे से दिखनेवाले आम का रस भी अत्यन्त मीठा होता है। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि पीला रंग, आम के रस को मीठा नहीं बना सकता और हरा रंग, आम को खट्टा नहीं रख सकता है। इसप्रकार जैसे, एक आम नामक रूपी-पुद्गल में रहनेवाला वर्ण गुण, उसी आम में रहने वाले रसगुण में कुछ कार्य नहीं कर सकता। इसी तरह जीवद्रव्य पर भी घटित किया जा सकता है - जैसे - जब आत्मा का श्रद्धागुण, पूर्ण निर्मल अवस्थारूप अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्वरूप परिणत हो जाता है; तब भी श्रद्धा की वह पूर्ण निर्मल, सिद्धों जैसी पर्याय, चारित्रगुण की परिणति को सिद्ध जैसी पूर्ण निर्मल नहीं गुण-विवेचन बना सकती; क्योंकि चारित्र की पूर्ण निर्मल पर्याय को तो चारित्रगुण ही बना सकता है। इसी प्रकार अन्य गुणों को भी समझ सकते हैं। जब एक द्रव्य में रहने वाला एक गुण, उसी द्रव्य के अन्य गुणों में कुछ नहीं कर सकता तो मनुष्य, घर-गृहस्थी चलावे, बाल-बच्चों का कल्याण करे, समाज का सुधार करे, राष्ट्र का उद्धार करे, इत्यादि बातें कैसे सम्भव हो सकती हैं? - ऐसा ज्ञान होने पर कर्ताबुद्धि का सहज ही अभाव होता है और आकुलता मिट जाती है। ३. मैं जीवद्रव्य, अनन्त गुणों का पिण्ड हूँ; इसलिए मैं भी महान हूँ, दरिद्री, हीन-दीन या बेकार नहीं हूँ - ऐसी बुद्धि प्रगट होती है। तथा दूसरे मनुष्यों को विशेष धनवान् अथवा शरीर से विशेष बलवान या सुन्दर जानकर अज्ञानी, जैसे दीनता का अनुभव करता है, वैसी प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है। ४. चारों ओर दिखाई देनेवाले जीवों को भी समभाव से देखने की भावना उत्पन्न होती है। जगत् में प्रत्येक जीव (कीड़ा, मकोड़ा, गधा, कुत्ता आदि) अपने समान ही है - ऐसा परिणाम उत्पन्न होता है। इस कारण मानसिक समाधान मिलता है और द्वेषभाव मन्द होता है अथवा नष्ट होता है। ५. अत्यन्त दुर्गन्ध एवं अशोभनीय पौद्गलिक पदार्थों को देखकर भी घृणा उत्पन्न नहीं होती; क्योंकि वे पुद्गल भी अनन्त गुणों के धनी हैं - ऐसा ज्ञान में स्वीकार हो जाता है। ६. गुण सम्बन्धी अज्ञान का नाश होता है अर्थात् गुण का स्पष्ट ज्ञान होता है, इसकारण आनन्द भी होता है। १२९. प्रश्न - गुणों के कितने भेद हैं? उत्तर - गुणों के दो भेद हैं - १. सामान्यगुण और २. विशेषगुण । १३०. प्रश्न - सामान्यगुण किसे कहते हैं? उत्तर - जो गुण, सर्व द्रव्यों में रहते हैं; उनको सामान्यगुण कहते हैं। १३१. प्रश्न - विशेषगुण किसे कहते हैं? ।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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