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________________ जिनधर्म-विवेचन गुण के सम्बन्ध में कहा है- 'किसी द्रव्य में शक्ति की अपेक्षा से भेद कल्पित करना, यही गुण शब्द का अर्थ है।' ३. कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कार्तिकेयस्वामी ने गाथा २४१ के पूर्वार्द्ध में लिखा है - 'जो द्रव्य का परिणाम सदृश (पूर्व-उत्तर सब पर्यायों में समान) तथा अनादिनिधन होता है, वही गुण है।' ११२ ४. मुनिराज श्री योगीन्दुदेव ने परमात्मप्रकाश गाथा ५७ में कहा है - 'गुण तो द्रव्य में सहभावी हैं, अन्वयी हैं, सदा नित्य हैं; कभी द्रव्य से तन्मयता नहीं छोड़ते।' ५. आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में अध्याय ५ के सूत्र ४१ द्वारा स्पष्ट किया है - 'जो द्रव्य के आश्रय से हों और स्वयं दूसरे गुणों से रहित वे गुण हैं।' अनेक ग्रन्थों में अन्य भी अनेक परिभाषाएँ हैं उन सबका भाव एक ही जैसा होने से विस्तारभय से मात्र यहाँ पाँच ही परिभाषाएँ दी हैं। १२०. प्रश्न गुण को अन्य किन नामों से जिनवाणी में कहा है? उत्तर - पाण्डे राजमलजी ने पंचाध्यायी के अध्याय १ में गुण के अनेक पर्यायवाची नाम दिये हैं- 'शक्ति, लक्ष्म, विशेष, धर्म, रूप, गुण, स्वभाव, प्रकृति, शील और आकृति - ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। अर्थात् ये सब विशेष या गुण के पर्यायवाची नाम हैं।' १२१. प्रश्न गुण और द्रव्य में परस्पर कौनसा सम्बन्ध है? उत्तर - गुण और द्रव्य में चार प्रकार के सम्बन्ध है - १. नित्य तादात्म्यसिद्ध सम्बन्ध - गुण और द्रव्य में शक्कर और मिठास के समान नित्य तादात्म्यसिद्ध सम्बन्ध है, शक्कर और डिब्बे के समान संयोगसम्बन्ध नहीं । द्रव्य और गुण एकरूप हैं, तन्मय हैं। द्रव्य से गुण को अथवा गुणों से द्रव्य को कभी भी अलग नहीं किया जा सकता। मिथ्यादृष्टि / अज्ञानी जीव, जिन पदार्थों का संयोग सम्बन्ध है, उनके साथ भी तादात्म्य सम्बन्ध मानता है, इस कारण दुःखी होता है। जैसे - (57) गुण- विवेचन ११३ पुत्र, मित्र, पत्नी आदि प्रत्यक्ष में ही भिन्न हैं। उनकी भिन्नता जानने के लिए अधिक सूक्ष्म चिन्तन की भी कहाँ आवश्यकता है? यद्यपि मनुष्य को पत्नी का संयोग, विवाह के कारण होता है, बाद पुत्र की प्राप्ति होती है; तथापि अज्ञानी, स्त्री-पुत्र को अपना ही मानता हैं। लोक में हम देखते हैं कि परिणामों की ऐसी विचित्रता है कि माता-पिता का संयोग तो जन्म से रहता है; परन्तु विवाह के बाद माँबाप दूर के हो जाते हैं और पत्नी अधिक नजदीक की हो जाती है। सही देखा जाए तो इन सभी का संयोग सम्बन्ध ही है। देखो! इस जीव को संयोगजनित पदार्थ अज्ञान के कारण वास्तविक अपने जैसे लगने लगते हैं; इसलिए उनके वियोग से उसे दुःख होता है। तथा जो ज्ञानादि गुण वास्तविक अपने हैं, उनको अपना नहीं मानता; इसलिए वास्तविक सुख प्राप्त नहीं होता है। सत्य बात तो यह है कि ज्ञानगुण के साथ ही जीव का तादात्म्य सम्बन्ध है, जबकि क्रोधादि विकारी परिणामों के साथ भी जीव का संयोग सम्बन्ध है । इस विषय का विवेचन समयसार गाथा ६९-७० की टीका में श्री अमृतचन्द्राचार्यदेव ने किया है, उसे जरूर देखें । जो अपना (ज्ञान) है, वह कभी आत्मा को छोड़कर जाता नहीं और जो (परद्रव्य एवं क्रोधादि विकारी भाव) अपने को छोड़कर चले जाते हैं, वे अपने नहीं; यही सत्यस्वरूप है। २. अंश अंशी सम्बन्ध - गुण को विभाग भी कहते हैं। विभाग और अंश का एक ही अर्थ है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि गुण को अंश भी कह सकते हैं। पंचाध्यायी, पूर्वार्द्ध के श्लोक ४८ के भावार्थ में अंश को गुण कहा भी है। अर्थात् गुणों या अंशों को जो धारण करता है, उसे अंशी या गुणी अर्थात् द्रव्य कहते हैं । तत्त्वार्थसूत्र अध्याय ५, सूत्र ३४- ३५ - ३६ की सर्वार्थसिद्धि टीका में आचार्य पूज्यपाद ने गुण का अर्थ स्निग्ध-रूक्षरूप स्पर्शपर्याय किया है, परन्तु वहाँ स्निग्ध-रूक्षरूप शक्त्यंशों को गुण कहा गया है।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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