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________________ जिनधर्म-विवेचन किसी भी द्रव्य का कोई भी कर्ता-धर्ता और हर्ता नहीं है इस सत्य का ज्ञान होता है। ७४ ९. परस्पर विरुद्ध स्वभावी अनन्त द्रव्य, एक ही विश्व में अविरोधरूप से अनादिकाल से रहते आये हैं और अनन्त काल तक रहेंगे जानने से सह-अस्तित्व की शिक्षा मिलती है। - ऐसा १०. प्रत्येक द्रव्य स्वतन्त्र होने से, मैं जीवद्रव्य किसी का कुछ अच्छा-बुरा नहीं कर सकता और अन्य द्रव्य भी मेरा कुछ अच्छा-बुरा नहीं कर सकते ऐसा निर्णय होता है। ११. प्रत्येक द्रव्य में अनन्त गुण होते हैं; इस समझ से कोई भी द्रव्य छोटा-बड़ा नहीं है - यह श्रद्धा दृढ़ होती है। ५६. प्रश्न हम कौन से द्रव्य हैं ? उत्तर - हम अर्थात् हमारी आत्माएँ जीवद्रव्य हैं; क्योंकि हम ज्ञानमय हैं और जानने का ही कार्य करते हैं। हमारा शरीर, स्पर्शादि गुणमय पौद्गलिक जड़ है, नाशवान है। ५७. प्रश्न हम मनुष्य हैं, मानवता हमारा धर्म / कर्तव्य है - ऐसा आप क्यों नहीं समझाते ? उत्तर - यहाँ तो केवलज्ञानी अर्थात् सर्वज्ञ जिनेन्द्र भगवान ने जो अलौकिक तत्त्व कहा है, उसकी चर्चा चल रही है। मनुष्य अवस्था / पर्याय तो सौ-पचास वर्ष तक रहेगी, उसकी क्या बात करना ? अपने को वास्तविकरूप से मनुष्य मानना ही तो मिथ्यात्व है। इसलिए स्थूल / उपचरित/ तात्कालिक सत्य की चर्चा करने में हमें रस नहीं है। अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों द्वारा कथित अलौकिक तत्त्व को बताने का ही हमारा मानस / भाव है । आचार्य वादीभसिंह सूरि ने क्षत्रचूड़ामणि ग्रन्थ ( प्रथम लम्ब) श्लोक ७८ में निम्न प्रकार से अपने आत्मा को जानने की प्रेरणा दी है। (38) द्रव्य - विवेचन 'कोऽहं कीहग्गुणः क्वत्यः किं प्राप्यः किं निमित्तकः । इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने ही मतिर्भवेत् ॥ मैं कौन हूँ? मुझ में कौन से और कैसे गुण हैं? मैं कहाँ से आया हूँ ? इस भव में मुझे क्या प्राप्त करने योग्य है ? और उसमें क्या योग्य निमित्त है ? इसप्रकार के विचार प्रतिदिन न हों तो बुद्धि अयोग्य कार्यों में प्रवृत्त हो जाती है। " ७५ देखो! आचार्यश्री ने प्रथमानुयोग के शास्त्र में भी पाठकों को अपनी आत्मा को जानने की जो सलाह दी है, यह बहुत महत्त्वपूर्ण है। ५८. प्रश्न- उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य एक ही समय में होते हैं; इसप्रकार जानने से क्या कुछ हमें लाभ भी है ? उत्तर - १. किसी भी पर्याय को इष्ट अथवा अनिष्ट जानना, यह गलत है; क्योंकि द्रव्य में जो पर्याय होने लायक थी, वही हुई है - ऐसा जानने से जीव की आकुलता मिटती है। २. अपनी कल्पना से अज्ञानी जिस पर्याय को इष्ट मानता है, उसे नित्य रखना चाहता है; लेकिन कोई भी पर्याय नित्य रहेगी ही नहीं, पर्याय का नाश होना स्वाभाविक है ऐसा ज्ञान होने से जीव को शान्ति प्राप्त होती है। जैसे, युवारूप अवस्था को मनुष्य नित्य चाहता है। धन, यश, आदि अवस्था की नित्यता चाहता है; लेकिन कोई भी अवस्था नित्य रहती ही नहीं - यह वस्तुस्वरूप है। ३. किसी को कोई पर्याय अनिष्ट लगती हो तो समझदार जीव यह समझ सकता है कि यह जो पर्याय होनी है, वह होगी ही, हमें क्यों परेशान होना ? - ऐसा जानकर समाधान प्राप्त कर सकता है। जैसे, रोग से पीड़ित व्यक्ति को देखा नहीं जा सकता है। वर्तमानकाल में अनुकूलता में जीवन जी रहे व्यक्ति को देखकर, अज्ञानी उस अवस्था को चाहता है; लेकिन चाहने से कोई भी अवस्था मिलती नहीं ऐसा पक्का निर्णय होता है।
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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