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________________ जिनधर्म-विवेचन द्रव्य-विवेचन समय की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मन्दगति से गमन करनेवाले एक पुद्गल परमाणु को आकाश के एक प्रदेश से निकटवर्ती दूसरे प्रदेश पर जाने में जितना काल लगता है, उसे समय कहते हैं। ___मान लीजिए कि हमने आज इसी समय विदेहक्षेत्र में विद्यमान श्री सीमन्धर तीर्थंकर के समवशरण में जाकर भगवान से प्रश्न पूँछा - 'भगवन्! भविष्यकाल कितना है?' दिव्यध्वनि में उत्तर आया - 'भूतकाल के अनन्त वर्ष बीत चुके हैं, उससे भी अनन्तगुना भविष्यकाल है।' __ पुनः कल्पना कीजिए कि अनन्त वर्षों के बीत जाने के बाद हमें अन्य सर्वज्ञ भगवान के समवसरण में जाने का पुनः सुअवसर मिला और हमने फिर वही प्रश्न किया कि भगवन! हमने अनन्त वर्ष पूर्व विदेहक्षेत्र में स्थित श्री सीमन्धर परमात्मा से भविष्यकाल विषयक प्रश्न पूँछा था तो उत्तर आया था 'भूतकाल से भविष्यकाल अनन्तगुना है।' अब हम अनन्त वर्ष बीत जाने पर पुनः प्रश्न पूछ रहे हैं कि 'भविष्यकाल कितना है?' तो दिव्यध्वनि में वही उत्तर आया कि 'भूतकाल से भविष्यकाल अनन्तगुना अधिक है। इसतरह पुद्गलद्रव्य से अनन्तगुने तीन के काल के समय हैं और तीन काल के समयों से भी अनन्तगुने आकाश के प्रदेश हैं। ३९. प्रश्न - प्रदेश किसे कहते हैं? उत्तर - एक अविभागी पुद्गल परमाणु अथवा कालाणु से व्याप्त आकाश के क्षेत्र को प्रदेश कहते हैं। ४०. प्रश्न - परमाणु किसे कहते हैं? उत्तर - सबसे सूक्ष्म पुद्गल का वह अंश, जिसका दूसरा विभाग न हो सके, उसे परमाणु कहते हैं। परमाणु तथा कालाणु का आकार समान होता है। ४१. प्रश्न - आकाश का अन्तिम छोर-अन्त कब प्राप्त होगा? उत्तर - मान लो कि हम दश दिशाओं में से किसी एक दिशा अथवा विदिशा में गमन करना प्रारम्भ करें और निरन्तर गमन करते/ चलते ही रहें, फिर भी आकाश का छोर/अन्त हमें कभी नहीं मिलेगा। ४२. प्रश्न - हमें छोर नहीं मिलेगा या छोर/अन्त है ही नहीं? उत्तर - वास्तव में दशों दिशाओं में आकाश कहीं समाप्त ही नहीं होता अर्थात् उसका छोर/अन्त है ही नहीं तो हमें उसका छोर/अन्त मिलेगा कैसे? ४३. प्रश्न - सर्वज्ञ भगवान तो आकाश का अन्त जानेंगे या नहीं? उत्तर - जब आकाश का अन्त है ही नहीं तो भगवान भी उसका अन्त कैसे जानेंगे? अर्थात् जान ही नहीं सकते।। ४४. प्रश्न - तो क्या सर्वज्ञ का केवलज्ञान अपूर्ण है? उत्तर - नहीं, सर्वज्ञ का ज्ञान तो पूर्ण ही है; अपूर्ण नहीं। जैसी वस्तु है, वैसी ही तो वे जानेंगे। जब आकाश का अन्त है ही नहीं तो वे केवलज्ञानी भी उसका अन्त जानेंगे कैसे? आचार्य उमास्वामी के गुरु आचार्यश्री कुन्दकुन्द भी पंचास्तिकाय ग्रन्थ की गाथा ९ में कहते हैं - 'दवियदि गच्छदि ताई, ताई सब्भावपज्जयाई जं। दवियं तं भण्णंते, अणण्णभूदं तु सत्तादो ।। अर्थात् उन-उन सद्भावपर्यायों को जो द्रवित करता है, प्राप्त होता है; उसे (सर्वज्ञ) द्रव्य कहते हैं, जो कि सत्ता से अनन्यभूत हैं। __ आगे पंचास्तिकाय की गाथा १० में भी आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - 'जो सत् लक्षणवाला है, जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त है तथा जो गुण-पर्यायों का आश्रय है; उसे (सर्वज्ञ) द्रव्य कहते हैं।' ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने ही प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन की गाथा क्रमांक ९५, १०१, १०२, १०३ आदि में भी द्रव्य के सम्बन्ध में बहुत स्पष्टतापूर्वक लिखा है। जिज्ञासुओं को समग्ररूप से सूक्ष्मतापूर्वक (32)
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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