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________________ जिनधर्म-विवेचन आचार्यश्री माणिक्यनन्दिकृत ग्रन्थ परीक्षामुख के उपर्युक्त सूत्रानुसार विश्व को जानने से होनेवाले लाभ निम्नानुसार हैं १. विश्व विषयक हमारा जो अज्ञान था, उस अज्ञान का नाश विश्व को जाने से होता है। विश्व का विषय पढ़ने के पहले हमें जिनधर्म के द्वारा मान्य विश्व का ज्ञान नहीं था; उसका ज्ञान होना यह प्रथम लाभ है। २. अज्ञानजन्य परिपाटी के अनुसार विश्व का कर्ता कोई न कोई ईश्वर आदि होगा ही ऐसी जो अनिष्ट भ्रान्ति थी, उसका हान अर्थात् त्याग होता है। - ५६ ३. यह विश्व छह द्रव्यमय, अनादि-अनन्त, स्वयम्भू एवं शाश्वत है; इसप्रकार यथार्थ ज्ञान का उपादान अर्थात् ग्रहण होता है। ४. वीतरागी, सर्वज्ञ एवं हितोपदेशी जिनेन्द्र भगवान द्वारा कथित विश्व को जानकर, विश्व के सम्बन्ध में कपोल-कल्पित अन्य अनेक मिथ्या धारणाओं की उपेक्षा अर्थात् उदासीनता स्वाभाविकरूप से हो जाती है। ५. जगत् के किसी भी जीवादि द्रव्य से कुछ लाभ होता है - ऐसी मिथ्या भ्रान्ति निकल जाती है। अन्य जीवादि द्रव्यों से निरपेक्ष रहने की भावना जागृत होती है। इसप्रकार यहाँ विश्व सम्बन्धी २८ प्रश्नोत्तर के साथ विवेचन पूर्ण होता है। (29) द्रव्य - विवेचन २९. प्रश्न – विश्व को जानने के अनन्तर ही द्रव्य की परिभाषा को जानना क्यों आवश्यक है ? उत्तर - विश्व की परिभाषा में 'द्रव्य' शब्द आया है, वह द्रव्य क्या है ? - ऐसी जिज्ञासा मन में उत्पन्न होना स्वाभाविक है। उस जिज्ञासा को शान्त करने के लिए और द्रव्य सम्बन्धी विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की भावना से यहाँ विश्व के बाद द्रव्य की परिभाषा जानना आवश्यक है । द्रव्य का विवेचन प्रारम्भ होता है। द्रव्य के इस नवीन प्रकरण में - ३०. प्रश्न द्रव्य किसे कहते हैं? उत्तर - गुणों के समूह को द्रव्य कहते हैं। अब, विस्तार से इसकी चर्चा करते हैं - जिन जीवादि छह द्रव्यों के समूह को विश्व कहते हैं, उन्हीं द्रव्यों की चर्चा हमें यहाँ करना है। अन्य रुपया-पैसा, धन-सम्पत्ति आदि लौकिक द्रव्यों/पदार्थों से यहाँ कुछ भी लेना-देना नहीं है। इन द्रव्यों का पृथक्-पृथक् कथन करने के पूर्व हमें सामान्य रीति से द्रव्य किसे कहते हैं? - यह जानना आवश्यक है। इस द्रव्य के स्वरूप को अनन्त सर्वज्ञ भगवन्तों ने अपनी अनुपम 'दिव्यध्वनि' के द्वारा अनादिकाल से बतलाया है और भविष्य में भी अनन्तकाल तक बताते रहेंगे । तीर्थंकर भगवान आदिनाथ से लेकर तीर्थंकर भगवान महावीर पर्यंत मात्र चौबीस तीर्थंकरों ने ही नहीं; अपितु सभी केवलज्ञानी, गणधर, आचार्य, मुनिवर और सामान्य ज्ञानियों ने भी द्रव्य के स्वरूप को इसीप्रकार से परिभाषित किया है। अनेक ज्ञानियों के तात्त्विक कथन में कभी भी परस्पर मतभेद
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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