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________________ जिनधर्म-विवेचन ६. क्रमांक १० से यह सिद्ध होता है कि कभी-कभी ज्ञान बढ़ता है तो भी वजन नहीं बढ़ता, जबकि ज्ञान के साथ सम्बन्ध रखने वाले धैर्य, शान्ति आदि में वृद्धि होती है। इसीप्रकार कभी-कभी शरीर वजन में घटता है, लेकिन ज्ञान में घटती नहीं होती; इसलिए ज्ञान और शरीर ये दोनों भिन्न, स्वतन्त्र और विरोधी गुणवाले पदार्थ हैं । जैसे, (अ) शरीर वजनसहित और ज्ञान वजनरहित; (ब) शरीर घटा, ज्ञान बढ़ा; (स) शरीर का भाग कम हुआ, ज्ञान उतना ही रहा या फिर बढ़ा; (द) शरीर इन्द्रियगम्य है, संयोगी है और आत्मा से अलग हो सकता है अथवा किसी दूसरी जगह उसका भाग अलग होकर रह सकता है, जबकि ज्ञानवस्तु इन्द्रियगम्य नहीं, किन्तु ज्ञानगम्य है, उसके टुकड़े या हिस्से नहीं हो सकते, क्योंकि वह असंयोगी है और सदा अपने द्रव्य, क्षेत्र (आकार), काल और भावों से अपने में अखण्डित रहता है और इसलिए उसका कोई भाग अलग होकर अन्यत्र नहीं रह सकता या किसी को दे नहीं सकता; २६ (इ) यह शरीर, संयोगी पदार्थ से बना है, उसके टुकड़े हिस्से हो सकते हैं; परन्तु ज्ञान वैसा नहीं है। किसी संयोग के कारण कोई अपना ज्ञान दूसरे को दे नहीं सकता, किन्तु अपने अभ्यास से ही ज्ञान बढ़ा सक वाला, असंयोगी और निज में से आनेवाला होने से ज्ञान स्व-आत्मा के ही आश्रित रहने वाला है। ७. 'ज्ञान' गुणवाचक नाम है, वह गुणी के बिना नहीं होता, इसलिए ज्ञानगुण को धारण करनेवाली वस्तु जीव है; उसे आत्मा, सचेतन पदार्थ, चैतन्य इत्यादि नामों से पहिचाना जा सकता है। इस तरह जीवपदार्थ, ज्ञानसहित, असंयोगी, अरूपी और अपने ही भावों का अपने में कर्ताभोक्ता सिद्ध होता है और उससे विरुद्ध शरीर, ज्ञानरहित, अजीव, संयोगी (14) विश्व - विवेचन और रूपीपदार्थ सिद्ध होता है; वह पुद्गल नाम से पहचाना जाता है। शरीर के अतिरिक्त जो-जो पदार्थ दृश्यमान होते हैं, वे सभी शरीर की तरह पुद्गल ही हैं और वे सब पुद्गल सदा अपने ही भावों के अपने में ही कर्ता भोक्ता हैं, जीव से सदा भिन्न होने पर भी वे अपना कार्य करने पूर्ण सामर्थ्यवान हैं। २७ ८. पुनश्च ज्ञान का ज्ञानत्व कायम रहकर, उसमें हानि - वृद्धि होती है । उस हानि-वृद्धि को ज्ञान की तारतम्यतारूप अवस्था कहा जाता है। शास्त्र की परिभाषा में उसे 'पर्याय' कहते हैं। जो नित्य ज्ञानत्वरूप से स्थिर रहता है, वह 'ज्ञानगुण' है । ९. शरीर, संयोगी सिद्ध है, इसलिए वह वियोगसहित ही होता है। पुनश्च शरीर के छोटे-छोटे हिस्से करें तो अनेक हिस्से हों और जलाने पर राख हो जाए; इसीलिए यह सिद्ध होता है कि शरीर, अनेक रजकणों का पिण्ड है । जैसे, जीव और ज्ञान, इन्द्रियगम्य नहीं, किन्तु विचार (Reasoning ) गम्य हैं; उसी तरह पुद्गलरूप अविभागी रजकण भी इन्द्रियगम्य नहीं, किन्तु ज्ञानगम्य है । १०. शरीर, यह मूलवस्तु नहीं, किन्तु अनेक रजकणों का पिण्ड है और रजकण स्वतन्त्र वस्तुएँ हैं अर्थात् असंयोगी पदार्थ हैं और वे स्वयं परिणमनशील हैं। ११. जीव और रजकण असंयोगी हैं, अतः यह सिद्ध होता है कि वे अनादि अनन्त है; क्योंकि जो पदार्थ, किसी संयोग से उत्पन्न नहीं होता, उसका नाश भी नहीं होता । १२. शरीर एक स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है; किन्तु अनेक पदार्थों की संयोगी अवस्था है। अवस्था, हमेशा प्रारम्भ सहित ही होती है, इसलिए शरीर शुरुआत या प्रारम्भसहित है, वह संयोगी होने से वियोगी भी है। (६) जीव, अनेक और अनादि-अनन्त हैं तथा रजकण भी अनेक
SR No.009455
Book TitleJin Dharm Vivechan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain, Rakesh Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages105
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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