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________________ 332 प्रकरण आठवाँ अवश्य है कि वह अल्परोग रहने पर निरोग होने का उपाय करे तो हो सकता है, लेकिन कोई अल्परोग को ही अच्छा जानकर उसे रखने का यत्न करे तो निरोग किस प्रकार होगा ? उसी प्रकार किसी कषायी को तीव्र कषायरूप अशुभपयोग था, फिर मन्द कषायरूप शुभोपयोग हुआ। अब, वह शुभोपयोग कहीं निष्कषाय शुद्धोपयोग होने का कारण नहीं है। हाँ, इतना अवश्य है कि शुभोपयोग होने पर यदि शुद्धोपयोग का यत्न करे तो हो सकता है, लेकिन कोई उस शुभोपयोग को ही अच्छा मानकर उसी का साधन करता रहे तो शुद्धोपयोग कहाँ से होगा ? दूसरे, मिथ्यादृष्टि का शुभोपयोग तो शुद्धोपयोग का कारण है ही नहीं, किन्तु सम्यग्दृष्टि को शुभोपयोग होने पर निकट शुद्धोपयोग की प्राप्ति होती है; - ऐसी मुख्यता से कहीं-कहीं शुभोपयोग को भी शुद्धोपयोग का कारण कहते हैं - ऐसा समझना ।" (मोक्षमार्गप्रकाशक, 256 ) (5) ... व्यवहार तो उपचार का नाम है और वह उपचार भी तभी बनता है, जब वह सत्यभूत निश्चय रत्नत्रय के कारणादिरूप हो, अर्थात् जिस प्रकार निश्चय रत्नत्रय की साधना होती है, उसी प्रकार उसे साधे तो उसमें व्यवहारपना सम्भव हो.... (मोक्षमार्गप्रकाशक, 249 ) प्रश्न 67 - अध्यात्मशास्त्र में नयों का क्या स्वरूप है ? उत्तर - 1. तावत्मूलनयौ द्वौ निश्चयो व्यवहारश्च । अर्थात् नयों के मूल दो भेद हैं- ( 1 ) निश्चयनय, व्यवहारनय । 2. तत्रनिश्यनयोऽभेदविषयों व्यवहारो भेदविषयः ।
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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