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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 327 अभेद भलीभाँति मालूम हो सकता है, इसलिए भेद को गौण कहकर, उसे व्यवहार कहा है। यहाँ ऐसा अभिप्राय है कि भेददृष्टि से निर्विकल्पदशा नहीं होती और सरागी को विकल्प बना रहता है; इसलिए जहाँ तक रागादिक दूर न हों, वहाँ तक भेद को गौण करके अभेदरूप निर्विकल्प अनुभव कराया गया है। वीतराग होने के पश्चात् भेद-अभेदरूप वस्तु का ज्ञाता हो जाता है। वहाँ नय का आलम्बन ही नहीं रहता। (श्री समयसार गाथा 7 का भावार्थ) (3) पहले श्री (समयसार, गाथा 11 में) व्यवहार को असत्यार्थ कहा था, वहाँ ऐसा नहीं समझना चाहिए कि वह सर्वथा असत्यार्थ है; कथञ्चित् असत्यार्थ जानना चाहिए, क्योंकि जब एक द्रव्य को भिन्न, स्वपर्यायों से अभेदरूप. उसके असाधारण गुणमात्र को प्रधान करके कहा जाये, तब परस्पर द्रव्यों का निमित्तनैमित्तिक भाव तथा निमित्त से होनेवाली पर्यायें - वे सब गौण हो जाते हैं; एक अभेद द्रव्य की दृष्टि में वे प्रतिभासित नहीं होते, इसलिए वे सब उस द्रव्य में नहीं है - ऐसा कथंचित निषेध किया जाता है। यदि उन भावों को उस द्रव्य में कहा जाये तो वह व्यवहारनय से कहा जा सकता है; - ऐसा नय विभाग है। '...यदि निमित्त नैमित्तिक भाव की दृष्टि से देखा जाये तो वह व्यवहार कथञ्चित् सत्यार्थ भी कहा जा सकता है। यदि सर्वथा असत्यार्थ ही कहा जाये तो सर्व व्यवहार का लोप (अभाव) हो जाये और सर्व व्यवहार का लोप होने से परमार्थ का भी लोप हो जायेगा; इसलिए जिनदेव का स्याद्वादरूप उपदेश समझने से ही सम्यग्ज्ञान है, सर्वथा एकान्त वह मिथ्यात्व है।' (श्री समयसार गाथा 58-60 का भावार्थ)
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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