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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 291 'पञ्चाचारों से परिपूर्ण, पञ्चेन्द्रियरूपी हाथी के मद को चूर करनेवाले, धीर और गुण-गमीर ऐसे आचार्य होते हैं।' (गाथा 73) [आचार्य के 36 गुण होते हैं।] श्री उपाध्याय का स्वरूप - रयणत्तयसंजुत्ता जिणकहियपयत्थदेसया सूरा। णिक्कंखभावसहिया उवज्झाया एरिसा होंति॥ 'रत्नत्रय से संयुक्त, जिनकथित पदार्थों के शूरवीर उपदेशक और नि:काँक्षभावसहित - ऐसे उपाध्याय होते हैं।' (गाथा 74) [उपाध्याय के 25 गुण होते हैं। वे मुनियों में अध्यापक होते हैं।] श्री साधु का स्वरूप - वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता। णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति॥ 'व्यापार से विमुक्त, चतुर्विध (चार प्रकार की) आराधना में सदैव रक्त / लीन, निर्ग्रन्थ और निर्मोह ऐसे साधु होते हैं।' (गाथा 75) [साधु के 28 मूलगुण होते हैं] आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधु का सामान्य स्वरूप जो निश्चयसम्यग्दर्शनसहित है, विरागी है, समस्त परिग्रह के त्यागी हैं; जिन्होंने शुद्धोपयोग मुनिधर्म अंङ्गीकार किया है और जो अन्तरङ्ग में उस शुद्धोपयोग द्वारा अपने आत्मा का अनुभव करते हैं, परद्रव्य में अहंबुद्धि नहीं करते, अपने ज्ञानादि स्वभाव को ही
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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