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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 229 कहीं भ्रम न रहे। बर्फ के संयोग से पानी ठण्डा हुआ और अग्नि के संयोग से गर्म हुआ - ऐसा अज्ञानी देखता है परन्तु पानी के रजकणों में ही ठण्डागर्म अवस्थारूप परिणमित होने का स्वभाव है, उसे अज्ञानी नहीं देखता। भाई ! वस्तु का स्वरूप ऐसा ही है कि अवस्था की स्थिति एकरूप न रहे। वस्त कटस्थ नहीं है परन्त बहते हए पानी की भाँति द्रवित होती है - पर्याय को प्रवाहित करती है, उस पर्याय का प्रवाह वस्तु में से आता है; संयोग में से नहीं आता। भिन्न प्रकार के संयोग के कारण अवस्था की भिन्नता हुई अथवा संयोग बदले, इसलिए अवस्था बदल गयी - ऐसा भ्रम अज्ञानी को होता है परन्तु वस्तुस्वरूप ऐसा नहीं है। यहाँ चार बोलों द्वारा वस्तु का स्वरूप एकदम स्पष्ट किया है। 1. परिणाम ही कर्म है। 2. परिणामी वस्तु के ही परिणाम हैं; अन्य के नहीं। 3. वह परिणामरूपी कर्म, कर्ता के बिना नहीं होता। 4. वस्तु की स्थिति एकरूप नहीं रहती। इसलिए वस्तु स्वयं ही अपने परिणामरूप कर्म की कर्ता है - यह सिद्धान्त है। इन चारों बोलों में तो बहुत रहस्य भर दिया है। उसका निर्णय करने से भेदज्ञान तथा द्रव्यसन्मुखदृष्टि से मोक्षमार्ग प्रगट होगा। प्रश्न - संयोग के आने पर तद्नुसार अवस्था बदलती दिखाई देती है न? उत्तर - यह सत्य नहीं है, वस्तुस्वभाव को देखने से ऐसा दिखायी नहीं देता; अवस्था बदलने का स्वभाव वस्तु का अपना है
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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