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________________ 202 प्रकरण छठवाँ अर्थात् इस शास्त्र का निचोड़ यह है और यही परमतत्त्व का पोषक है कि शुद्धनय की रीति छोड़ने से बन्ध और शुद्धनय की रीति ग्रहण करने से मोक्ष होता है। 9. श्री समयसार नाटक के बन्धद्वार, श्लोक 32 में कहा है कि - असंख्यात लोक परवांन जे मिथ्यात भाव, तेई विवहार भाव केवली-उकत हैं। जिन्हको मिथ्यात गयौ सम्यक दरस भयौ, ते नियत-लीन विवहारसौं मुकत हैं॥ निरविकलप निरुपाधि आतम समाधि, साधि जे सुगुन मोख पंथकौं ढुकत हैं। तेई जीव परम दसामैं थिररूप द्वैकै, धरममैं धुके न करमसौं रुकत हैं॥32॥ अर्थात् असंख्यात लोक प्रमाण जो मिथ्यात्व भाव है, वह व्यवहारभाव है - ऐसा केवली भगवान कहते हैं। जिस जीव के मिथ्यात्व का नाश होने से सम्यग्दर्शन प्रगट होता है, वह व्यवहार से मुक्त होकर निश्चय में लीन होता है और वह निर्विकल्प, निरुपाधिमय आत्मानुभव को साधकर सच्चे मोक्षमार्ग में लग जाता है और वही परमध्यान में स्थिर होकर निर्वाण प्राप्त करता है, कर्मों से नहीं रुकता। 10 - श्री मोक्षपाहुड़ गाथा 31 में कहा है कि - जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गए सकजम्मि। जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अप्पणो कज्जे ॥31॥
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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