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________________ 184 प्रकरण छठवाँ • जहाँ क्षणिक उपादानकारण हो, वहाँ निमित्तकारण होता ही है। उन दोनों को समग्ररूप से समर्थकारण कहते हैं। अकेला क्षणिक उपादानकारण कभी होता ही नहीं; इसलिए भावलिङ्ग मुनिपना हो, वहाँ बाह्य मुनिलिङ्ग नियम से होता है - ऐसा समझना। • क्रोधोत्पत्ते पुनः बहिरङ्ग यदि भवेत् साक्षात्। न करोति किंचिदपि क्रोधं तस्य क्षमा भवति धर्म इति। अर्थात् क्रोध उत्पन्न होने के साक्षात् बाह्य कारण मिलने पर भी जो अल्प भी क्रोध नहीं करता, उसके उत्तम क्षमाधर्म होता है। (श्री कुन्दकुन्दाचार्य कृत द्वादशानुप्रेक्षा - 71) [यहाँ बाह्य कारण अर्थात् निमित्तकारण अकेला है; इसलिए उसे असमर्थकारण कहा है।] | प्रश्न 42 - साधकतमकारण किसे कहते हैं ? उत्तर - क्षणिक उपादान की योग्यता को साधकतम कारण कहते हैं - (विशेष के लिए देखिये, श्री प्रवचनसार गाथा 126 की टीका) जीव संसारदशा में या धर्मदशा में अकेला ही स्वयं अपना कारण है, क्योंकि वह अकेला ही करण (कारण) था। यहाँ अपने करण-साधन को साधकतम (उत्कृष्ट साधन) कहा है। प्रश्न 43 - सहकारीकारण का क्या अर्थ है ? वह दृष्टान्त देकर समझाइये? उत्तर - स्वयमेव ही गमनादि कियारूप वर्तते हुए जो जीवपुद्गल, उन्हें धर्मास्तिकाय सहकारीकारण है। उसमें उनका
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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