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________________ श्री जैन सिद्धान्त प्रश्नोत्तरमाला 181 तो सभी भावों का संहार ही नहीं होगा, (अर्थात् जिस प्रकार मृत्तिका पिण का व्यय नहीं होगा; उसी प्रकार विश्व के किसी भी द्रव्य में किसी भी भाव का व्यय ही नहीं होगा - यह दोष आयेगा); अथवा (2) यदि सत का उच्छेद होगा तो चैतन्यादि का भी उच्छेद हो जाएगा, अर्थात् सर्व द्रव्यों का समूल नाश हो जाएगा - यह दोष आयेगा।' (प्रवचनसार, गाथा 100 की टीका) [उत्पादनकारण और संहारकारण, ये उपादानकारण के भेद हैं। प्रश्न 40 - समर्थकारण किसे कहते हैं? उत्तर - प्रतिबन्ध का अभाव तथा सहकारी समस्त सामग्रियों के सद्भाव को समर्थ कारण कहते हैं। समर्थकारण के होने से कार्य की उत्पत्ति नियम से होती है। उसके दृष्टान्त - 1.... अब, यह आत्मा जिस कारण से (उपादानकारण से) कार्यसिद्ध अवश्य हो, उस कारण उद्यम करे, वहाँ तो अन्य कारण (निमित्तकारण) अवश्य मिलेंगे ही और कार्य की सिद्धि भी अवश्य होगी ही... इसलिए जो जीव श्री जिनेश्वर के उपदेशानुसार पुरुषार्थपूर्वक मोक्ष का उपाय करता है, उसे तो काललब्धि और भवितव्य भी हो चुके, तथा कर्म के उपशमादि हुए हैं, तब तो वह ऐसा उपाय करता है; इसलिए जो पुरुषार्थपूर्वक मोक्ष का उपाय करता है, उसे तो सर्व कारण मिलते हैं - ऐसा निश्चय करना और उसे अवश्य मोक्ष की प्राप्ति होती है... (देहली से प्रकाशित मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ 456) [नोट : यहाँ ऐसा बतलाया है कि जहाँ क्षणिक उपादान की
SR No.009453
Book TitleJain Siddhant Prashnottara Mala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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