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________________ देशविरत गुणस्थान समयसारनाटक-गर्भित गुणस्थान वह ब्रह्मचर्य नामक सातवीं प्रतिमा का धारी, ज्ञानी, जगत् विख्यात, शील-शिरोमणि है।।६६ ।। नव बाड़ के नाम (कवित्त) तियथल वास प्रेम रुचि निरखन, दे परीछ भारवै मधु बैन । पूरव भोग केलि रस चिंतन, गुरु आहार लेत चित चैन ।। करि सुचि तन सिंगार बनावत, तिय परजंक मध्य सुख सैन। मनमथ-कथा उदर भरि भोजन, ये नौ बाड़ि कहै जिन बैन ||६७॥ शब्दार्थ :- तियथल वास = स्त्रियों के समुदाय में रहना । निरखन = देखना । परीछ (परोक्ष) = अप्रत्यक्ष । गुरु आहार = गरिष्ट भोजन। सुचि = पवित्र । परजंक = पलंग। मनमथ = काम । उदर = पेट । अर्थ :- (१) स्त्रियों के समागम में रहना । (२) स्त्रियों को रागभरी दृष्टि से देखना। (३) स्त्रियों से परोक्ष में सराग सम्भाषण करना । (४) पूर्वकाल में भोगे हुए भोग-विलासों का स्मरण करना । (५) आनन्ददायक गरिष्ट भोजन करना । (६) स्नान मंजन आदि के द्वारा शरीर को आवश्यकता से अधिक सजाना । (७) स्त्रियों के पलंग आसन आदि पर सोना-बैठना। (८) कामकथा वा कामोत्पादक कथा-गीतों का सुनना । (९) भूख से अधिक अथवा खूब पेट भरकर भोजन करना। इनके त्याग को जैनमत में ब्रह्मचर्य की नव बाड़ कहा है ।।६७।। आठवीं प्रतिमा का स्वरूप (दोहा) जो विवेक विधि आदरै, करै न पापारंभ | सो अष्टम प्रतिमा धनी, कुगति विजै रनथंभ ||६८॥ अर्थ - जो विवेकपूर्वक धर्म में सावधान रहता है और सेवा, कृषि, १. 'कहै मत जैन' ऐसा भी पाठ है। २. दृष्टि-दोष बचाने के लिये परदा आदि की ओट में संभाषण करना, अथवा पत्र-व्यवहार करना। वाणिज्य आदि का पापारंभ नहीं करता; वह कुगति के रणथंभ को जीतनेवाली आठवीं प्रतिमा का स्वामी है ।।६८।। नववीं प्रतिमा का स्वरूप (चौपाई) जो दसधा परिग्रह को त्यागी। सुख संतोष सहित वैरागी। समरस संचित किंचित् ग्राही। सो श्रावक नौ प्रतिमा वाही।।६९|| अर्थ :- जो वैराग्य और संतोष का आनन्द प्राप्त करता है तथा दस प्रकार के परिग्रहों में से थोड़े से वस्त्र व पात्र मात्र रखता है; वह साम्यभाव का धारक नववीं प्रतिमा का स्वामी है ।।६९ ।। दसवीं प्रतिमा का स्वरूप (दोहा) पर को पापारंभ कौ, जो न देइ उपदेस। सो दसमी प्रतिमा सहित, श्रावक विगत कलेस ||७०॥ अर्थ - जो कुटुम्बी व अन्य जनों को विवाह, वाणिज्य आदि पापारंभ करने का उपदेश नहीं देता, वह पापरहित दसवीं प्रतिमा का धारक है ।।७० ।। ___ ग्यारहवीं प्रतिमा का स्वरूप (चौपाई) जो स्वच्छंद वरतै तजि डेरा| मठ मंडप मैं करै बसेरा।। उचित आहार उदंड विहारी। सो एकादश प्रतिमा धारी||७१॥ अर्थ :- जो घर छोड़कर मठ-मंडप में निवास करता है और स्त्री, पुत्र, कुटुम्ब आदि से विरक्त होकर स्वतंत्र वर्तता है तथा कृत, कारित, अनुमोदना रहित योग्य आहार ग्रहण करता है; वह ग्यारहवीं प्रतिमा का धारक है।।७१।। प्रतिमाओं के सम्बन्ध में मुख्य उल्लेख (दोहा) एकादश प्रतिमा दसा, कही देसवत मांहि । वही अनुक्रम मूल सौं, गहौ सु छूटै नांहि ।।७२ ।। (15)
SR No.009450
Book TitleGunsthan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2013
Total Pages25
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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