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________________ भगवान महावीर और उनकी हिंसा यदि हम चाहते हैं कि शराब लोगों के माथे में न भन्नाये तो हमें इन्तजाम करना होगा कि वह लोगों के पेट में न जाये; यदि हम चाहते हैं कि शराब लोगों के पेट में न जाये तो हमें इन्तजाम करना होगा कि वह मार्केट में न श्राये; यदि हम चाहते हैं कि वह मार्केट में न श्राये तो हमें इन्तजाम करना होगा कि वह बने ही नहीं । भाई ! इतना किए बिना काम नहीं चलेगा । ८२ इसीप्रकार यदि हम चाहते हैं कि हमारे जीवन में हिंसा प्रस्फुटित ही न हो तो हमें उसे ग्रात्मा के स्तर पर, मन के स्तर पर ही रोकना होगा : क्योंकि यदि आत्मा या मन के स्तर पर हिंसा उत्पन्न हो गई तो वह वारणी और काया के स्तर पर भी प्रस्फुटित होगी ही । यही कारण है कि भगवान महावीर वात की तह में जाकर बात करते हैं और कहते हैं कि यदि हिंसा को रोकना है तो उसे आत्मा और मन के स्तर पर ही रोकना होगा । जबतक लोगों के दिल साफ़ नहीं होंगे, जबतक लोगों की आत्मा में निर्मलता नहीं होगी, तबतक हिंसा के अविरल प्रवाह को रोकना संभव न होगा । यह बात तो यह हुई कि हिंसा - हिंसा की परिभाषा में 'आत्मा' शब्द का उपयोग क्यों किया गया है ? पर अब बात यह है कि भगवान महावीर यहाँ रागादि भावों की उत्पत्ति को ही हिंसा कह रहे हैं । भाई ! जिस रागभाव अर्थात् प्रेमभाव को सारा जगत् अहिंसा माने बैठा है, भगवान महावीर उस रागभाव को ही हिंसा बता रहे हैं | बात जरा खतरनाक है; अतः सावधानी से सुनने की आवश्यकता है । जैनदर्शन में प्रतिपादित अहिंसा की इसी विशेषता के कारण कहा जाता रहा है कि अन्य दर्शनों की अहिंसा जहाँ समाप्त होती है, जैनदर्शन की हिंसा वहाँ मे श्रारम्भ होती है । सारी दुनिया कहती है कि प्रेम में रहो और महावीर कहते हैं कि यह प्रेम - यह राग भी हिंसा है । है न बात प्रद्भुत ! पर सिर हिलाने से काम नहीं चलेगा, बात को गहराई से समझना होगा । न तो इस बात से सहमत होकर उपेक्षा करने से ही बात बनेगी और न बिना समझे स्वीकार कर लेने से कुछ होनेवाला है । बान को बड़े ही धैर्य मे, गहराई में समझना होगा ।
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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