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________________ ८० भगवान महावीर और उनकी अहिंसा एक मास्टरजी थे । यदि कोई मास्टरजी यहाँ बैठे हों तो नाराज मत होना । वैसे मैं भी तो मास्टर ही हूँ। चिन्ता की कोई बात नहीं है । हाँ तो एक मास्टरजी थे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा कि आज रोटी जरा जल्दी बनाना, मुझे स्कूल जल्दी जाना है । मास्टरनी बोली :- "आज रोटी जल्दी नहीं बन सकती, क्योंकि जयपुर से एक दुबले-पतले से पंडित आये हैं; मैं तो उनका प्रवचन सुनने जाऊंगी।' मास्टरजी गर्म होते हुए बोले :- "मैं कुछ नहीं समझता, रोटी जल्दी बनना चाहिए।" बेचारी मास्टरनी घबड़ा गई, आधा प्रवचन छोड़कर आई, जल्दीजल्दी रोटी बनाई; पर जबतक रोटी बनती, तबतक मास्टरजी का माथा मास्टरनी के तवा से भी अधिक गर्म हो गया था और रोटी बन जाने पर भी मास्टरजी बिना रोटी खाये ही स्कूल चले गये । अब आप ही बताइये कि मास्टरनी को कितना गुस्सा आया होगा? प्रवचन भी छटा और मास्टरजी भी भूखे गये, पर क्या करे ? मास्टरजी तो चले गये, घर पर बेचारे बच्चे थे; उसने उनकी धुनाई शुरू कर दी। गुस्सा तो मास्टरजी को भी कम नहीं आ रहा था, क्योंकि भूखे थे न; पर स्कूल में न तो मास्टरनी ही थी और न घर के बच्चे, पराये बच्चे थे; उन्होंने उनकी धुनाई प्रारंभ कर दी। भाई ! यदि हिंसा एक बार आत्मा में - मन में उत्पन्न हो गई तो फिर वह कहीं न कहीं प्रकट अवश्य होगी; अतः भगवान महावीर ने कहा कि बात ऐसी होनी चाहिए कि हिंसा लोगों के मन में-आत्मा में ही उत्पन्न न हो- यही विचार कर उन्होंने हिंसा-अहिंसा की परिभाषा में यह कहा कि प्रात्मा में रागादिभावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और आत्मा में रागादिभावों की उत्पत्ति नहीं होना ही अहिंसा है।। भगवान महावीर का पच्चीससौवां निर्वाणवर्ष था । सारे भारत वर्ष में निर्वाण महोत्सव के कार्यक्रम बड़े जोर-शोर से चल रहे थे। भगवान महावीर का धर्मचक्र एवं एक हजार यात्रियों को साथ लेकर हम भी सारे देश में भगवान महावीर का संदेश देते फिर रहे थे । उत्तरदक्षिण पूर्व-पश्चिम के सभी तीर्थों की तीन मास तक यात्रा करते हुए अन्त में गुजरात पहुंचे।
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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