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________________ गाथा ७६ पर प्रवचन भाई ! प्रत्येक आत्मा अपने भले-बुरे एवं सुख-दुःख का स्वयं जिम्मेदार है । कोई दूसरा हमारा भला-बुरा नहीं कर सकता। तारणस्वामी ही क्या, सभी संतों का एक ही कहना है कि हमें जगत-प्रपंचों मे दूर रहकर मात्र अपने हित में संलग्न रहना चाहिए । भाई ! हम सबका जीवन बहुत थोड़ा है। किसी का दश वर्ष अधिक होगा, किसी का दश वर्ष कम; पर इससे क्या अन्तर पड़ता है ? हम सभी को इस थोड़े से शेष जीवन का एक-एक क्षरण कीमती जानकर इमका सदुपयोग करना चाहिए। जो बात स्वयं के हित की लगती है, वह बात सभी तक पहुँचे - इस पावन भावना से ही हम आत्मा की बात करते हैं। पूज्य गुरुदेवश्री के प्रताप से जो वीतरागी तत्त्व मिला है, वह जनजन की वस्तु बन जावे, सम्पूर्ण जगत उसे जानकर पहिचानकर, अपनाकर अनन्तसुखी हो- इस भावना से ही आत्मा की बात करते हैं। जगत माने, न माने - इससे हमें क्या अन्तर पड़ता है ? इसकी चर्चा करने से अपना उपयोग तो निर्मल रहता ही है। इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं कि आप लोग हमारी बात सुनते नहीं, मानते नहीं । सुनते भी हैं, भूमिकानुसार यथासंभव मानते भी हैं; न सुनते होते तो इतनी सर्दी में इतनी रात गए खुले मैदान में हजारों लोग न बैठे रहते । रात को कटरा बाजार में समयसार चलता है न ! देखो, हजारों लोग कितनी शान्ति से सुनते हैं ? पर भाई ! सुनने मात्र से काम चलनेवाला नहीं है, इस वीतरागी तत्त्व को जीवन में ढालना होगा, जीवन को वीतराग-विज्ञानमय बनाना होगा। हम तो यही भावना भाते हैं कि हमारा यह शेष जीवन आत्मा के गीत गाते-गाते ही बीते । हमारा ही क्यों, आपका भी -हम सबका यह शेष जोवन आत्मा की आराधना में ही समाप्त हो । एकमात्र यही सार है, शेष तो सब असार है । सभी आत्मार्थी निज भगवान आत्मा को जानकर, पहिचानकर, निज में ही जमकर-रमकर अनन्तसुखी हों- इम पावन भावना से विराम लेता हूँ।
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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