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________________ ४६ गाथा ७६ पर प्रवचन भाई ! आकुलित होने की आवश्यकता नहीं । शान्ति श्रौर धैर्य से समझोगे तो सब समझ में प्रायगा । शरीर पर से दृष्टि हटाने का तात्पर्य दृष्टि कहीं और ले जाने से नहीं है, शरीर के ही भीतर विद्यमान शरीर से भिन्न निज भगवान श्रात्मा पर ले जाने से है । इसके लिए दृष्टि को भेदक होना होगा । तेरी दृष्टि में ऐसी भेदक सामर्थ्य है कि तू चाहे तो देह की ओर देखते हुए भी देह को न देखे, उसके भीतर विराजमान भगवान आत्मा को ही देखे । जरा प्रयत्न करके देख ! जब हम किसी बच्चे को चन्द्रमा दिखाना चाहते हैं तो उससे कहते हैं कि चन्द्रमा की ओर देखो, पर वह यह नहीं जानता कि चन्द्रमा किस र है, वह कहाँ देखे ? तो हम कहते हैं कि आकाश की ओर देखो, आकाश तो बहुत विशाल है, चारों ओर है, आखिर वह देखे कहाँ ? पर तब हम उसे वृक्ष की ओर देखने को कहते हैं । पर वृक्ष भी किस ओर है - बताने के लिए हम अंगुली दिखाते हैं । अब मैं आपसे ही पूछता हूँ कि बालक वृक्ष देखे या अंगुली ? यदि अंगुली न देखे तो वृक्ष किस ओर है ? - यह पता चलना कठिन है । अत: सर्वप्रथम अंगुली देखना अनिवार्य है, पर अंगुली ही देखता रहे तो वृक्ष दिखाई नहीं देगा । अतः अंगुली देखकर उसका इशारा समझकर अंगुली देखना बंद करके वृक्ष की ओर देखे, वृक्ष देखे । वृक्ष देखना ही तो उद्देश्य नहीं है। वृक्ष तो चन्द्रमा देखने के लिए देखना था । अतः वृक्ष को देखकर वृक्ष की ओर ही देखता रहे, पर वृक्ष को देखना बन्द करके, उसकी आड़ में छिपे, उसके पीछे विद्यमान चन्द्रमा को देखे, तभी चन्द्रमा दिखाई देगा । चन्द्रमा दिखाई दे जाने के उपरान्त अत्यन्त रुचिपूर्वक उसे ही इस गहराई से निहारता रहे कि वृक्ष दिखाई देना ही बन्द हो जावे और मात्र चन्द्रमा ही दिखाई देता रहे । क्या गजब की बात है कि वृक्ष की ओर देखे, पर वृक्ष न देखे, उसके पीछे विद्यमान चन्द्रमा ही देखे । ऐसा होना असंभव भी नहीं है । इसीप्रकार जब प्राचार्यदेव हमें भगवान श्रात्मा के दर्शन कराना चाहते हैं तो वे कहते हैं कि हे आत्मन् ! तूने श्राजतक निज भगवान आत्मा के दर्शन नहीं किए, इसीलिए अत्यन्त दुःखी है; श्रतः त संपूर्ण
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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