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________________ गागर में सागर लाल रंग पड़ा है, वह पानी के साथ बहेगा; पर अन्तर को स्वच्छ सफेद शिला तब भी स्थिर रहेगी । निर्मल स्वभाव खड़ा रहता है और विकार बहता है । जिस पर्त पर लालिमा है, उस पर्त से लालिमा ही निकलेगी। जिस पर्त में विकार होता है, वह पर्त ही उखड़ जाती है। आत्मा की जिस पर्याय में राग होता है, वह पर्याय ही अगले समय में व्यय हो जाती है । स्वभाव में तो विकार का प्रवेश भी नहीं होता। यदि आपको तेज गुस्सा आ रहा है तो कोई चिन्ता की बात नहीं है; क्योंकि क्रोध का स्वभाव में तो प्रवेश ही नहीं है, वह पर्याय में ही उत्पन्न होता है । जब पर्याय अगले समय में स्वयं नाश को प्राप्त होगीमरेगी तो क्रोध को भी स्वयं ही मरना होगा। उसके जिन्दा रहने का कोई उपाय ही नहीं है । जिस पर्याय में क्रोध पैदा होता है, जब वही नहीं रहेगी तो क्रोध कहाँ रहेगा, कैसे रहेगा? जिस रेल के डिब्बे में क्रोध बैठा है, जब वह डिब्बा ही कट जाने वाला है तो उस क्रोध को हटाने के विकल्प में मैं क्यों उलझं ? ___ मैं तो अमल अखण्ड तत्त्व हूँ, मैं तो अविनाशी तत्त्व हूँ, इस मलिन क्षणिक पर्याय से मुझे क्या लेना-देना? विकार तो पर्याय में ही पैदा होता है, त्रिकाली ध्रुव को तो वह छू भी नहीं सकता । बर्फ की शिला पर रंग पड़ जाने से जगत को तो यही दिखाई देगा कि शिला लाल हो गई है। पर शिला में रंग का प्रवेश ही नहीं हुआ है, वह तो एकदम निर्मल है, अमल है। उस लालिमा को धोने की कोई जरूरत ही नहीं है, क्योंकि वह तो स्वयं ही घुल जानेवाली है। इसीप्रकार पर्याय में उत्पन्न होनेवाला विकार तो स्वयं मर जान वाला है । अन्तर में विराजमान त्रिकाली ध्रुव परमात्मा के पाश्रय से जो पर्याय उत्पन्न होगी, वह तो निर्मल ही उत्पन्न होगी। .अबतक जितने भी सिद्ध हुए हैं, वे सब उसी ध्रुव परमात्मा के प्राश्रय से हुए हैं । साधना का एकमात्र आधार तो वही ध्रुव परमात्मा है और वह मैं ही हूँ, कोई अन्य नहीं । कितने प्रानन्द की बात है कि जो भी गड़बड़ी होती है, वह वस्तु में नहीं होती, मात्र मान्यता में ही होती है । प्रात्मा तो अमल है, शुद्ध है, पर हमने उसे अशुद्ध मलिन मान रखा है, मलिन जान रखा है । यह माननाजानना ही मलिनता है, इससे अधिक मलिनता कुछ भी नहीं है । हमारे मानने से प्रात्मा मलिन नहीं हो जाता, वह तो अमल हो रहता है,
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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