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________________ गागर म गागर जाता । जो अपना है सो अपना है, जो पराया है सो पराया है। इसी प्रकार जो अपना है, उसे पराया मानने मात्र से वह पराया नहीं हो जाता; जो पराया है, उसे अपना मानने मात्र से अपना नहीं हो जाता; क्योंकि जो अपना है, वह त्रिकाल अपना है; जो पराया है, वह त्रिकाल पराया है। मान लो ससुरालवालों से हमारी खूब पटती है और सगे भाइयों से बिल्कुल नहीं बनती। जब हमने पंचकल्याणक करवाया तो ससुरालवालों को महीनों पहले बुलाया और घरवालों को खवर भी न दी । ससुरालवालों को गजरथ में साथ विठाया, पर घरवालों को बुलाया तक नहीं; फिर भी जब हम सिंघई बनेंगे तो हमारे घरवाले भाई प्रादि सभी दूर रहकर भी सिंघई बन जावेंगे, पर पास बैठे कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करनेवाले ससुरालवाले सिंघई नहीं बन सकते । देखो तो कितनी गजब की बात है कि बगल में बैठे कन्धे से कन्धा मिलाकर काम करनेवाले साले साहब सिंघई नहीं बन पाये और जो भाई हजारों मील दूर बैठे हैं, जिन्हें हमारे गजरथ चलाने की खबर भी नहीं है, वे सिंघई बन गये । साले से हमने कितना राग किया, पर वे अपने नहीं बन पाये और भाई से कितना ही द्वेष किया, पर वे पराये न हो सके । इससे सिद्ध होता है कि किसी को अपना मानने या राग करने मात्र से कोई अपना नहीं होता; इसीप्रकार किसी को पर मानने या द्वेप करने मात्र से वह पर नहीं हो जाता। अनादि काल से हमने देहादि परपदार्थों को अपना माना और निज भगवान ग्रात्मा को अपना नहीं माना, पर न तो आजतक देहादि परपदार्थ अपने हए और न भगवान ग्रात्मा ही पराया हश्रा । __ यहाँ तो यह बताया जा रहा है कि देहादि परपदार्थ तो अपने हैं ही नहीं; पर उन्हें अपना जाननेवाला हमारा ज्ञान, अंपना माननेवाली हमारी श्रद्धा और उनम राग-द्रंप करनेवाला चारित्र गुरण का परिणमन भी मैं नहीं है। यद्यपि जान जानता है कि ये मोह-राग-द्वेष के परिणाम अपनी ही विकार्ग पर्याय हैं. नथापि श्रद्धा उन्हें स्वीकार नहीं करती। अतः ज्ञान की अपेक्षा वे अपने हैं और श्रद्धा की अपेक्षा अपने नहीं हैं। श्रद्धा का श्रद्धेय तो अमल ग्रान्मा ही है । श्रद्धा का हिसाव अलग है और जान का हिसाब अलग । तारगास्वामी यहाँ श्रद्धा की वात कर रहे हैं । कोई व्यक्ति अपने बेटे में नाराज होकर समाचारपत्रों में प्रकाशित कर दे कि अमुक व्यक्ति से मेरा कोई संबंध नहीं है, उससे मेरा कुछ भी
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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