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________________ गागर म सागर ज्ञान तो किसी भी वस्तु को वीतरागभाव से जान लेता है; पर जिसमें हमारा अपनत्व होता है, उसमें हम रुचि लेने लगते हैं, राग करने लगते हैं। अनादिकाल से हमने अपने को तो पहिचाना नहीं है, अपने भगवान आत्मा में तो एकत्व स्थापित किया. नहीं है और अपनी ही कल्पना से परपदार्थों में से ही किन्हीं को अपना और किन्हीं को पर या पराया मान रखा है । अपनी इसी मान्यता के अनुसार हम परपदार्थों में राग-द्वेष किया करते हैं। मान लीजिए आप रेलगाड़ी से यात्रा कर रहे हैं । पास बैठे यात्री से आप पूछते हैं : "भाई साहब ! आप कौन हैं, कहाँ से पा रहे हैं, कहाँ जावेंगे, आप कहाँ रहते हैं ?" उत्तर में वे कहते हैं :- "हम जैन हैं, मध्यप्रदेश में रहते हैं।"तो आप एकदम पुलकित हो जाते हैं; कहने लगते हैं :- "हम भी जैन हैं, हम मध्यप्रदेश में रहते हैं।" पर जब वे बताते हैं कि हम खण्डेलवाल, तो आप नाक-भौं सिकोड़ने लगते हैं; कहते हैं कि हम तो परवार हैं । जिनमें आपका एकत्व है, जब दूसरा भी उसरूप मिलता है तो उसमें आपकी रुचि जागत हो जाती है, उससे आप अनुराग प्रकट करने लगते हैं; पर जिसमें आपका एकत्व नहीं है, उसके प्रति अापके व्यवहार में एक रूखापन सा आ जाता है । ___ अात्मा में आपका वोर्य उत्साहित हो- इसके लिए उसमें अपनापन होना अत्यन्त आवश्यक है। श्रद्धा के सुधरे बिना ज्ञान-चारित्र नहीं सुधरते । अतः यहाँ तारणस्वामी श्रद्धा की ही बात कर रहे हैं,। “ममात्मा ममलं शुद्ध" कहकर वे श्रद्धा गुण को ही मुख्य बना रहे हैं। यदि ज्ञान की बात होती तो कहते कि यह सत्यार्थ है, यह असत्यार्थ है; चारित्र की बात होती तो कहते कि यह हेय है, यह उपादेय है; पर यहाँ श्रद्धा की बात है, अतः कहा जा रहा है कि प्रात्मा मेरा है, यात्मा मैं हूँ, अन्य देहादि मैं नहीं हूँ, देहादि मेरे नहीं हैं । श्रद्धा की बात होने में स्व-पर का विभाग मुख्य हो गया है। इससे प्रतीत होता है कि तारण स्वामी यहाँ श्रद्धा गुरण की ही बात कर रहे हैं।
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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