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________________ गागरम सागर १०३ जैनपथ-प्रदर्शक (पाक्षिक) मई, द्वितीय पक्ष ; १९८५ ई. । प्रवचनकला एवं लेखनकला दोनों स्वतन्त्र विधाएँ हैं । डॉ. भारिल्ल के व्यक्तित्व में दोनों कलाएं समृद्ध रूप से विद्यमान हैं, परन्तु उनके प्रवचन को लेखन में परिणत करके प्रस्तुत करने का यह प्रथम सफल प्रयोग है, जो सहज लेखन से भी अधिक सफल होगा । प्रवचन में दिए गए रोचक उदाहरणों एवं तर्कों को लेखन में समाविष्ट करने पर भी लेखन का सहज प्रवाह एवं गभ्भीरता स्खलित नहीं हो पाई है । सम्पूर्ण प्रवचनों में आत्मानुभव की प्रेरणा पर विशेष बल दिया गया है । अतः आत्मरूचि को पुष्ट करने के लिए यह पुस्तक आद्योपान्त पठनीय व रमणीय है । -अभयकुमार जैन शास्त्री, जैनदर्शनाचार्य, एम. कॉम. जैनसन्देश (साप्ताहिक) मथुरा, ३० जनवरी, १९८६ ई. । डॉ. भारिल्लजी के ज्ञान समुच्चयसार की चुनी हुई चार गाथाओं एवं 'भगवान महावीर और उनकी अहिंसा' पर एक प्रवचन प्रस्तुत पुस्तक में है । डॉ. भारिल्ल के सरल, विषय को स्पष्ट करने वाले रोचकता लिए हुए, सटीक उदाहरण युक्त होते हैं । उनके प्रवचनों से कोई श्रोता ऊबता नहीं है । उनके अध्यात्म विषयक जैसे गूढ प्रवचन भी सरस हैं । अहिंसा वाला प्रवचन भी अनेक दृष्टिकोणों से पठनीय है । आधुनिक उदाहरणों से राग की उत्पत्ति को हिंसा एवं वीतराग भाव को अहिंसा सिद्ध किया गया है । साज-सज्जा एवं मुद्रण नयनाभिराम है । -डॉ. कन्छेदीलाल जैन
SR No.009449
Book TitleGagar me Sagar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1998
Total Pages104
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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