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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन से क्या प्रेम करना? तथा 'राचन जोग स्वरूप न याको, विरचन जोग सही है' अर्थात् इसका स्वरूप रमने योग्य नहीं है, अपितु यह छोड़ने योग्य ही है। हे आत्मन् ! देह यदि अपवित्र है तो रहने दे इसे अपवित्र; तुझे इससे क्या लेना-देना? तू तो इससे अत्यन्त भिन्न परमपवित्र भगवान आत्मा है। तू तो अपने को पहिचान। तू इस देह के ममत्व एवं स्नेह में पड़कर क्यों अनन्त दुःख उठा रहा है? इससे सर्वप्रकार स्नेह तोड़कर स्वयं में ही समा जाने में ही सार है। इसी बात को पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा इसप्रकार व्यक्त करते हैं - "निर्मल अपनी आत्मा, देह अपावन गेह। जानि भव्य निजभाव को, यासों तजो सनेह॥ अपनी आत्मा अत्यन्त निर्मल है और यह देह अपवित्रता का घर है।हे भव्यो! इसप्रकार जानकर इस देह से स्नेह छोड़ो और निजभाव का ध्यान करो।" इसप्रकार के चिन्तन का मूल उद्देश्य देह के प्रति विरक्ति उत्पन्न कर देहदेवालय में विराजमान देह से भिन्न निज भगवान आत्मा के दर्शन-ज्ञानरमणता की रुचि उत्पन्न करना ही है। इसप्रकार हम देखते हैं कि अशुचिभावना में देह सम्बन्धी अशुचिंता का चिन्तन किया जाता है; तथापि इसके चिन्तन की सीमा देह की अशुचिता तक ही सीमित नहीं है, अपितु इसमें आत्मा की पवित्रता का चिन्तन एवं रमणता भी समाहित हो जाती है। कार्तिकेय स्वामी तो स्पष्ट लिखते हैं - "जो परदेहविरत्तो, णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्पसरूव सुरत्तो, असुइत्ते भावणा तस्य॥' जो भव्य जीव परदेह (स्त्री आदि की देह) से विरक्त होकर अपनी देह में भी अनुराग नहीं करता है तथा अपने आत्मस्वरूप में अनुरक्त रहता है, उसके अशुचिभावना होती है।" १. पण्डित जयचन्दजी कृत बारहभावना २. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा ८७
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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