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________________ बारहभावना : एक अनुशीलन ७९ भिन्न ही रहते हैं। उसीप्रकार जीव और शरीर सर्वप्रकार से भिन्न-भिन्न होकर भी एकत्रित हो गये हैं। उनके एकत्रित हो जाने से वे एक नहीं हो जाते, भिन्नभिन्न ही रहते हैं। जिसप्रकार एकत्रित व्यक्तियों के समूह को मेला कहा जाता है, पर वस्तुतः उन समूहगत व्यक्तियों में प्रत्येक का व्यक्तित्व रंचमात्र भी विलीन नहीं होता, खण्डित नहीं होता; स्वतंत्ररूप से अखण्डित बना रहता है; क्योंकि अमिलमिलाप स्वभाववाले व्यक्ति वस्तुतः कभी मिल ही नहीं सकते हैं। मेला तो मेला है, उसमें एकता संभव नहीं है। मेले में एकता खोजना मेले का मेलापन खो देना है। उसीप्रकार एकत्रित देह और आत्मा को व्यवहार जीव कहा जाता है, पर वस्तुतः देह और आत्मा कभी भी एक नहीं होते, परस्पर विलीन नहीं होते; उनका स्वरूप खण्डित नहीं होता, स्वतंत्ररूप से अखण्डित ही बना रहता है; क्योंकि अमिल-मिलापवाले जड़ और चेतन पदार्थ कभी मिल ही नहीं सकते हैं। जीव और शरीर का भी मेला तो मेला ही है, उनमें एकता खोजना दोनों के स्वरूप को खण्डित कर देना है। __जिसप्रकार दूध तो दूध है और पानी पानी, दूध कभी पानी नहीं हो सकता और न पानी दूध। दूध में पानी मिला देने से न तो दूध पानी हो जाता है और न पानी दूध, मिल जाने पर भी दूध दूध रहता है और पानी पानी। वस्तुतः वे मिलते ही नहीं, मात्र मिले दिखते हैं; क्योंकि किसी अन्य में मिलना उनका स्वभाव ही नहीं है। किसी में मिलने में स्वयं को मिटा देना होता है और कोई वस्तु स्वयं को कभी मिटा नहीं सकती है। वस्तु ही उसे कहते हैं; जो कभी मिटे नहीं, सदा सत्रूप ही रहे। अत: कोई वस्तु कभी किसी में मिलती नहीं, मात्र मिली कही जाती है। यही कारण है कि दूध भी पानी में कभी मिलता नहीं, संयोग देखकर मात्र मिला कहा जाता है। उसीप्रकार जीव जीव है और देह देह; जीव कभी देह नहीं हो सकता है और न देह जीव। जीव और देह एकक्षेत्रावगाह हो जाने पर भी न तो जीव देह
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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