SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्यत्वभावना : एक अनुशीलन नहीं होती है और इससे तत्त्वज्ञान की भावनापूर्वक वैराग्य का प्रकर्ष होने पर आत्यन्तिक मोक्षसुख की प्राप्ति होती है ।" " , 'संयोग अनित्य हैं, अशरण हैं, असार हैं, साथ देनेवाले नहीं हैं इस तथ्य से अनित्यादि भावनाओं के चिन्तन से भलीभाँति परिचित हो जाने पर भी अज्ञानी को अज्ञानवश एवं ज्ञानी को भी कदाचित् रागवश थोड़े-बहुत इसप्रकार के विकल्प बने ही रहते हैं कि अनित्य सही, अशरण सही, असार सही, साथी न सही; पर शरीरादि संयोगी पदार्थ हैं तो अपने ही; निश्चय से न सही, पर व्यवहार से तो अपने हैं ही; जिनवाणी में भी तो व्यवहार से उन्हें अपना कहा है I ७६ व्यवहार के बल से उत्पन्न इसीप्रकार की विकल्पतरंगों के शमन के लिए संयोगी परद्रव्यों से निज परमात्मतत्त्व की पारमार्थिक अत्यन्त भिन्नता का अनेक प्रकार से किया गया चिन्तन ही अन्यत्वभावना है। इसी चिन्तन के बल से व्यवहार पक्ष शिथिल होता है और पारमार्थिक निश्चय पक्ष प्रबल होता है । प्रतिसमय वृद्धिंगत व्यवहार की निर्बलता और परमार्थ की प्रबलता ही निर्जरा है, जो मुक्ति का साक्षात् कारण है। आत्मा और शरीरादि संयोगों में परस्पर भिन्नता और अभिन्नता की वास्तविक स्थिति क्या है ? - इस बात का सोदाहरण चित्रण करते हुए पंडितप्रवर दौलतरामजी लिखते हैं - - " जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहि भेला । तो प्रगट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिलि सुत रामा ॥ यद्यपि आत्मा और शरीर पानी और दूध की भाँति मिले हुए हैं; तथापि वे अभिन्न नहीं हैं, पूर्णत: भिन्न-भिन्न ही हैं। जब एकक्षेत्रावगाही शरीर भी जीव से भिन्न है तो फिर धन-मकान, पुत्र- पत्नी तो प्रकट ही भिन्न हैं, वे जीव के कैसे हो सकते हैं?" १. सर्वार्थसिद्धि : अध्याय ९, सूत्र ७ की टीका २. छहढाला, पंचम ढाल, छन्द ७
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy