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________________ अन्यत्वभावना जिस देह में आतम रहे वह देह भी जब भिन्न है। तब क्या करें उनकी कथा जो क्षेत्र से भी अन्य हैं। हैं भिन्न परिजन भिन्न पुरजन भिन्न ही धन-धाम हैं। है भिन्न भगिनी भिन्न जननी भिन्न ही प्रिय वाम है ॥१॥ जिस देह में यह आत्मा रहता है, जब वह एकक्षेत्रावगाही देह भी आत्मा से भिन्न है तो जो क्षेत्र से भिन्न है, उनकी क्या बात करें? वे तो सर्वथा भिन्न हैं ही। नगरवासी, कुटुम्बीजन, भाई-बहिन, माँ-बाप, पति या पत्नी, धन-धान्य एवं मकान आदि सभी आत्मा से भिन्न ही हैं। अनुज-अग्रज सुत-सुता प्रिय सुहृद जन सब भिन्न हैं। ये शुभ अशुभ संयोगजा चिवृत्तियाँ भी अन्य हैं । स्वोन्मुख चिवृत्तियाँ भी आतमा से अन्य हैं। चैतन्यमय ध्रुव आतमा गुणभेद से भी भिन्न है ॥२॥ छोटे-बड़े भाई, पुत्र-पुत्री, प्रिय मित्रजन आदि सभी तो आत्मा से भिन्न हैं ही, परन्तु पर के लक्ष्य से आत्मा में ही उत्पन्न होनेवाली शुभाशुभभावरूप तथा स्वलक्ष्य से उत्पन्न होनेवाली शुद्धभावरूप चिवृत्तियाँ भी आत्मा से अन्य ही हैं, भिन्न ही हैं; चैतन्यमय ध्रुव आत्मा तो गुणभेद से भी भिन्न परमपदार्थ है।
SR No.009445
Book TitleBarah Bhavana Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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